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प्रद्यन्न
चरित्र
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इस प्रश्नका उत्तर कुछ भी न देकर प्रद्युम्नकुमारसे बोले, ! क्यों कुमार तुम अभीतक अपने पिता के साथ ऐसी चेष्टायें करना नहीं छोड़ते हो, जिनका श्रादर केवल बालकोंमें ही होता है। देखो, बहुत समयकी हँसी भी अच्छी नहीं लगतो है । योग्यता और अयोग्यता के जाननेवाले लोगोंकी हँसी क्षण भरके लिये होती है । इसलिये अब तुम हँसी छोड़कर मनोहर चेष्टायें करो।११.१४। और इस सारी सेनाको उठाकर कृष्णजीको हर्षसे पूरित करो। नारदजीके वचन सुनकर प्रद्युम्नकुमारने वैसा ही किया। हाथी घोड़ों और पैदलोंसे भरी हुई सारी सेनाको लीलामात्रमें उठा दी, उस समय ऐसा मालूम पड़ता था कि सब लोग सोकरके एक ही साथ उठ रहे हैं ।१५.१६। सेनाके वीर उठते हुए 'मारो ! मारो ! इस पापी शत्रुको जल्द ही पकड़लो !' इस प्रकार शब्द करते थे ।१७। अपने वीरोंको इमप्रकार युद्ध करनेके अभिलाषी देखकर श्रीकृष्णजी हसते हुए बोले, 'बस रहने दो, बहुत हो गया। सुभटों ! तुम्हारी सारी शूरवीरता देखली गई, मेरे अकेले एक पुत्र प्रद्युम्नकुमारने तुम सबको मार डाला था ।।१८। नारायणके यह मनोहर वचन सुनकर यादव पांडवादि सबको बड़ा भारी अचरज हुआ।१६। उनके विस्मित होनेपर श्रीकृष्णजी फिर बोले, यह मेरा पुत्र विद्याधरोंका स्वामी सम्पूर्ण विद्याओंका निधान और अपनी मायासे सारे जगतको जीतनेमें शूरवीर है। इस समय मुझसे मिलने के लिये आया है।२०-२१। नारायणके ये वचन सुनते ही भीम अर्जुन आदि सुभट हाथी घोड़ों और रथोंसे उतर पड़े और प्रद्युम्नकुमारसे स्नेहपूर्वक मिले। कुमारने भी सब बांधवोंको यथायोग्य रीतिसे नमस्कार किया। समुद्रविजय तथा बलभद्र आदि जो गुरुजन थे, उन्हें मस्तकको धरतीमें लगाकर प्रणाम किया और जो अगणित राजा नमीभूत हुए थे। उनको हृदयसे लगाकर तथा कुशलप्रश्न पूछकर संतुष्ट किया। प्रद्युम्नकुमारको देखकर सम्पूर्ण बन्धुजनोंको बहुत ही प्रसन्नता हुई। ठीक ही है अपने योग्य स्वजनोंको देखकर किसे सन्तोष नहीं होता है सभीको होता है ।२२-२७।
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