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प्रथम्न
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रुक्मिणी महाराणीके गर्भसे उत्पन्न हुआ पुत्र प्रद्युम्न कुमार है । ११-१२ । देवराजने फिर पूछा कि, मेरा उससे मिलाप होगा या नहीं ? भगवानने प्रत्युत्तर दिया कि, तुम दोनोंका अवश्य वहाँ ही संयोग होगा ।१३-१४ | क्योंकि तुम भी श्रीकृष्ण के पुत्र होवोगे । इसमें सन्देह नहीं है । जिनदेव के वचन सुन कर देवराज बड़ा प्रसन्न हुआ और तीर्थंकरको उत्कृष्ट भक्तिसे बारम्बार नमस्कार करके वहांसे द्वारिका नगरीको चल पड़ा । १५-१६ ।
श्रीकृष्ण की सभा में पहुँचकरके उसने अपने कमलके समान नेत्रोंको प्रफुल्लित किये हुए उन्हें भक्तिपूर्वक नमस्कार किया और कहा, हे प्रभो ! मेरे वचन सावधानी के साथ सुनो। मैं थोड़े ही दिनों में मनुष्यों को कामदेव के समान प्यारा और स्त्रियोंके चित्तको चुराने वाला तुम्हारा पुत्र होऊँगा । इसमें कुछ भी संशय नहीं है । सो तुम अमुक पक्ष में अमुक दिन महाराणी के साथ शयन करना । १७-१९ । इसके पश्चात् उसने श्रीकृष्णजीको एक मणियोंका हार दिया, जो अतिशय दैदीप्यमान था, जिसकी करोड़ सूर्यो' सरीखी प्रभा थी । और कहा कि, यह मनोहर हार जो कि अन्य मनुष्योंको दुर्लभ है, उसी मुहूतमें मेरी माताको देना । २०२१ | ऐसा कहकर वह देवराज बड़े यानन्द से अपने विमान में बैठकर चला गया ।
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उसके चले जाने पर श्रीकृष्णजी हर्षित हुए और उस कार्य के विषय में चिन्ता करने लगे कि, इस प्रद्युम्नके छोटे भाईको जो कि गुणोंका सागर है, जिसके गर्भ में अवतरण करूँ । विचार करते करते उन्हें एक बुद्धि उत्पन्न हुई कि प्रद्युम्न कुमारका और सत्यभामाका परस्पर बड़ा भारी द्वेष रहता है । तव यदि सत्यभामाके उदरसे हो इसका अवतार कराया जावेगा, तो छोटे भाई के सम्बन्ध से प्रद्युम्नकी और सत्यभामा की उत्कृष्ट प्रीति हो जावेगी । यह विचार उन्होंने अपने मन में ही पक्का कर लिया । प्रद्युम्नकुमार के भय से यह गुप्त विचार उन्होंने किसी से भी नहीं कहा । २२-२६ । परन्तु
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