Book Title: Patanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
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वर्णनके आधारसे की गई है। फिर भी कई जगह त्रुटित पाठकी पूर्ति नहीं हो सकी । जहाँ कल्पनाद्वारा पूर्ति की गई है। चहाँ कोष्टक आदि वास चिह्न किये हैं या नीचे फुट नोटमै सूचना की है।
योगविशिकाके सम्बन्ध भी वही बात है क्योंकि उसकी टीकाकी भी एक ही नकल मिल सकी। उस एक नकलको खोज नीकालनेका श्रेय प्रवर्तकजीके ही स्वर्गवासी शिष्य मुनि श्री भक्तिविजयजीको ही है। वह एक नकल कालके गाल में जा ही रही थी कि सौभाग्यवश उक्त मुनिजीको मिल गई। प्रसंग ऐसा हुआ कि अमदाबाद में किसी श्रावकके वहाँ कचरे के रूपमें पुराने पत्रे पडे थे, जिनको उक्त मुनिजीने देखा और उनमें से उनको उपाध्यायजी कृत योगविंशिका टीकाकी एक अखंड नकल मिली जो उनके स्वहस्तलिखित ही है । यद्यपि उपाध्यायजीने श्री हरिभद्रकृत वोसों विशिकाओंके ऊपर टीका लिखी है जैसा कि योगविशिकाटीकाके इस अन्तिम उल्लेखसे स्पष्ट है---
इति महोपाध्यायश्री कल्याणविजय गणि शिष्य मुख्य परिडतश्रीजीतविजयगणिसतीर्थ्य पण्डित श्रीनयविजयगणिचरणकमलचञ्चरीकपण्डितश्रीपद्म विजयगणि सहोदरोपाध्यायश्रीजसविजयगाणिसमर्थितायां विंशिकाप्रकरणव्याख्यायां योगविंशिका विवरण सम्पूर्णम् ॥
तथापि प्रस्तुत एक विशिकाको टीकाके सिवाय शेष उन्नीस विशिकाओंकी टीकाऍ आज अनुपलब्ध हैं । न जाने ये नाशका ग्रास हो गई, या कहीं अज्ञात रूपसे उक्त एक टीकाकी तरह कुडे कचरे के रूपमें किसी संग्रह लोलुपके द्वारा रक्षित