Book Title: Panchkappabhasam
Author(s): Labhsagar
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 297
________________ [ 278] पञ्चकल्प-भाष्ये ण विरागाण वि दोसा संभोगविही तु वणितो मुत्ते। णाणचरणठिताणं भाणियं सुतणाणपुरिसेहिं 2496 रागेणं संभुंजति सिणेहओ तेहिं सद्धि मम पीती। जच्चादणुवसमेण व दोसेणेवं ण संभुंजे // 2497 / / णाणचरण रयाणं एसुवदेसो उ वण्णितो सत्था। तं गणहरेहि गहितं तो ते सुतणाणपुरिसा उ 2498 किं कारणं अणुण्णा संभोगविही तु एस साहूणं / भन्नइ नाणाईणं परिवड्ढी एव होहिति तु // 2499 // अण्णोण्णस्स सगासे णाणमहीहिंतिजं च तं गहिता। होहिंति थिरा चरणे काहिंति गिलाणकिचं च 2500 जदि संभोगगुणा ते ता सव्वे कीस ण परिभुजंति / भण्णति सरिसऽहिंगेहिं व संलोगो ण पुण हीणेहिं / / अस्थि पुण केइ पुरिसा तिगं तिगेणं पमाय कव्वंति। आहार उवहिसेजा जत्तो संभुंजणाबंधो // 2502 // आहारादीतियगं उग्गममादी असुद्धगहणेणं / जे कुव्वति पमायं तेसिं संवासदोसेणं // 3 // अणुमोदणपच्चिइओ मा बंधो होहितित्ति तेणं तु। ण वि कीरति संभोगो ते वि य चगिता वरं होता 4

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