Book Title: Padarohan Sambandhi Vidhiyo Ki Maulikta Adhunik Pariprekshya Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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सम्पादकीय
जैन धर्म मूलतः निवृत्ति परक संन्यास मार्गी धर्म है किन्तु उसके साथ ही वह संघीय धर्म भी है। जैन तीर्थंकर सर्वप्रथम चतुर्विध संघ की स्थापना करते हैं जिसमें साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका ये चार वर्ग होते हैं। इनमें साधु-साध्वी मुनि संघ के अन्तर्गत और श्रावक-श्राविका गृहस्थ संघ के अन्तर्गत आते हैं। दोनों संघों की अपनी व्यवस्था है। इन व्यवस्थाओं के लिए नियामकों की आवश्यकता होती है। ये नियामक पदाधिकारी कहलाते हैं। जिस प्रकार गृहस्थ संघ में राजा, मंत्री, सेनापति, श्रेष्ठी आदि पद होते हैं उसी प्रकार मुनि संघ के अन्दर में आचार्य, उपाध्याय, गणि, प्रवर्त्तक, महत्तरा, प्रवर्त्तनी आदि पद होते हैं। इन पदों पर योग्य व्यक्तियों का चयन कर उन्हें पदस्थ किया जाता है। जैन संघ में पूर्व परम्परा से ही इन पदों के लिए किसी प्रकार की चुनाव व्यवस्था नहीं है। संघ या संघ के वरिष्ठ लोगों द्वारा योग्य अधिकारी को इस पद पर मनोनीत किया जाता है। तदुपरान्त कुछ योग्यताओं का ध्यान अवश्य रखा जाता है।
जैन आगम साहित्य के अन्तर्गत छेद सूत्रों में इन पदों एवं तद्सम्बन्धी योग्यताओं का विशेष उल्लेख मिलता है । परन्तु तद्योग्य विधि-विधानों का वर्णन आगम साहित्य में नहीं है। परवर्ती ग्रन्थों में पदारोहण सम्बन्धी विधिविधानों का सविस्तार उल्लेख मिलता है। इनमें सर्वप्रथम खरतरगच्छीय जिनप्रभसूरि रचित विधिमार्गप्रपा एवं वर्धमानसूरि रचित आचारदिनकर में इनका विस्तृत वर्णन समुपलब्ध होता है । आचार दिनकर में मुनि संघ सम्बन्धी विविध पद विधानों के साथ गृहस्थ पदों के विन्यास का भी समुल्लेख है ।
इन विधि-विधानों की विशेषता यह है कि इनमें सर्वप्रथम पद की अर्हता किसमें है? इसका निर्धारण करते हैं और फिर पदाभिषेक करते हैं। इसी के साथ पदधारी व्यक्ति को उसके कर्त्तव्यों का बोध भी करवाया जाता है। इसकी विस्तृत जानकारी हेतु साध्वी मोक्षरत्नाजी द्वारा अनुवादित एवं प्राच्य विद्यापीठ द्वारा प्रकाशित इसका हिन्दी अनुवाद द्रष्टव्य है। अतः हमें विस्तार से इन सब की चर्चा न करते हुए मात्र इतना कहना चाहूँगा कि विधिमार्गप्रपा एवं आचार