Book Title: Om Namo Siddham Author(s): Basant Bramhachari Publisher: Bramhanand Ashram View full book textPage 8
________________ ॐ नमः सिद्धम् संसार मान्य मंत्र है रत्न की उपमा देकर उस उपदेश के अपार गुण गाये, किंतु उनके शरीर और -धर्म दिवाकर पू. श्री गुलाबचंद जी महाराज समवशरण जो कि उनके पुण्य की विभूति थी एक भी गुणगान नहीं किया, प्रत्युत उन गुणों को आत्मगुणों में घटाकर यह बताया कि आत्मगुण ही पूज्य व ॐ नम: सिद्धम् ओम् स्वरूप को नमस्कार है, जो स्वयं सिद्ध है। यह कल्याणकारी हैं। नमस्कार व्यक्ति वाचक नहीं, गुणवाचक है। श्री तीर्थंकर जब दीक्षार्थ गमन करते हमारी हो या श्री तीर्थंकरों की पुण्यविभूति हो, मोक्ष में साथ नहीं जाती हैं तब 'ॐ नमः सिद्धम्' यही नमस्कार करते हैं। यदि वे व्यक्ति के पुजारी होते तो । और न पुण्यविभूति से आत्मकल्याण का कोई रंचमात्र संबंध ही है। आध्यात्मिक अपने से पूर्व में हुए तीर्थंकरों को नमस्कार करते। किंतु उन्हें तीर्थंकरत्व अभीष्ट न पुरुष तो पुण्यविभूति को आत्महित में बाधक मानता है, तब गुणगान क्यों ? जब था, उन्हें तो 'ॐ' स्वरूप अपना आत्मा ही अभीष्ट था । नमस्कार का एकमात्र हमारी दृष्टि का आकर्षण पुण्यविभूति की ओर खिंच जाता है तब स्वभावत: प्रयोजन 'तद्गुणलब्धये' ही होता है। आत्मगुणों की ओर नहीं रहता; क्योंकि उपयोग एक ही रहता है, दो नहीं। इत्यादि जैनधर्म का मूल सिद्धांत यही है। इसीलिए जैनधर्म स्वावलंबी है, परावलंबी । अनेक स्वयं के विचारों व तत्त्वदृष्टि से तथा जैनधर्म का वास्तविक वर्णन जैसा नहीं। भगवान हमारा कल्याण करेंगे अथवा भगवान की पूजा से हमारा कल्याण कुंदकुंदादि सभी आचार्यों ने सिद्धांत ग्रंथों में वर्णन किया है उस अध्ययन के हो जाएगा या हो रहा है, यह परावलंबता है, जैनधर्म के विरुद्ध मान्यता है, भ्रम कारण मूर्ति की मान्यता नहीं की। है। आत्मा की पूजा याने आत्मगुणों की आराधना, भक्ति और विकास करना यह श्री गांधीजी के हृदय में जैसा 'राम मंत्र' अंकित हो गया था और वही 'राम स्वावलंबिता है, जैन सिद्धांत है, सही मान्यता है। इसीलिए श्री तारण स्वामी ने मंत्र' अंत समय उनके मुखारविंद से निकला था, इसी तरह श्री तारण स्वामी के ग्रन्थ के प्रारंभ में नमस्कार रूप मंगलाचरण "ॐ नम: सिद्धम्" इसी का किया हृदय में आत्म मंत्र' अंकित था जो उनके द्वारा रचित ग्रंथों में पाया जाता है। एक है। और परे ग्रन्थ में आद्योपांत 'ॐ' स्वरूप स्वात्मा की पूजा, भक्ति, आराधना, तारण स्वामी के हृदय में ही क्या प्रत्येक आध्यात्मिक महापुरुष के हृदय में 'आत्म नमस्कार, दर्शन, स्तुति करते हुए उसे विकास में लाने, दोष रहित करने व। मंत्र' अंकित हो जाता है, आत्म मंत्र का ही दूसरा नाम 'राम मंत्र' है। एक यही वह आत्मा में परमात्मभाव की जाग्रति करने के समस्त साधनों का वर्णन किया है। __ मंत्र जो पुरुष को महापुरुष और महापुरुष को मोक्षधाम में पहुंचाने की सामर्थ्य उनका आत्मा ही आराधक व आत्मा ही आराध्य देव था। आत्मा ही ध्यान, आत्मा रखता है। यह मंत्र साम्प्रदायिक नहीं, संसारमान्य मंत्र है। ही ध्याता और आत्मा ही ध्येय था। आत्मा ही ज्ञान, आत्मा ही ज्ञाता और आत्मा (तारण वाणी से साभार) ही ज्ञेय था। आत्मा ही दर्शन, आत्मा हीज्ञान और आत्मा ही चारित्र था। आत्मगुण पूजा की सामग्री, आत्मभावनाएं पुजारी और आत्मा ही देव था। आत्मा ही आत्मा में आत्मा से आत्मा की शुद्ध परिणति लेकर आत्मा ही के लिए आत्मकल्याण को रमण करना था और यही मार्ग कल्याणकारी उनकी दृष्टि में था, जैनधर्मानुसार - उन्नति का सोपान : चिन्तन था अथवा जनहितकारी था। जो जीव आत्म स्वरूप का चिन्तन नहीं करता और नाशवान विनाशीक जैनधर्म साम्प्रदायिक नहीं आत्मधर्म है। मानव तो क्या प्राणीमात्र के साथ वस्तुओं की चिन्ता करता है वह आत्म स्वरूप को उपलब्ध नहीं कर वह धर्म न्यूनाधिक रूप से अपना प्रकाश कर रहा है और यथायोग्य हित भी कर सकता, चिंता आकुलता-व्याकुलता को बढ़ाती है। चिन्तन आत्म शांति रहा है, ऐसी उनकी विचारधारा थी। उनकी इस विचारधारा के प्रमाणस्वरूप को प्रगट करता है। आत्म चिन्तन करके ही जीव सुखी रह सकता है। उनके द्वारा रचित श्री अध्यात्मवाणी ग्रंथ है तथा जाति-पांति के भेदभाव रहित जिस प्रकार हम दुनियां की चिंता करते हैं उसी प्रकार अपना चिंतन करें सब को अपनाना है। प्रत्येक धार्मिक और व्यवहारिक क्रियाओं में आत्म ज्ञान की तो सुख का अनुभव होगा। पापों को उत्साह पूर्वक करना संसार की पुट होना चाहिए यह उनका मूल मंत्र है। बिना आत्मभावना के समस्त क्रियाएं चिंताएं करना दु:ख का कारण है। चिंतन ही आत्म उन्नति का एकमात्र निरर्थक हैं, ऐसा उन्होंने प्रतिपादन किया है। श्री तीर्थंकरों के उपदेश को चिंतामणि मार्ग है।Page Navigation
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