Book Title: Nyayashiksha
Author(s): Nyayavijay
Publisher: Vidyavijay Printing Press

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Page 9
________________ का, उपकार करना है; और वाचक जीवोंका पुस्तक वाचने वा पुस्तक पढनेका साक्षात् प्रयोजन, पुस्तकमें लिखे हुए पदार्थों का ज्ञान पाना है, और लेखक-वाचक, दोनोंका परंपरा प्रयोजन. तो, तत्त्वज्ञान द्वारा मोक्ष प्राप्त करना है। इसी स्वोपकार रूप परोपकारके लिये-लोगोंको धर्मका पता प्रकाशित करनेके लिये, विद्वान् महानुभाव लोग, अच्छी अच्छी पुस्तकें बनाते हैं, और अपना जीवन, पवित्र-निर्मल करते हैं, तो भी यह तो जरूर खयालमें रहे कि धर्म जैसी कोई दुर्लभ चीज नहीं है, जिसकी तकदीरका सितारा चमक रहा हो, जिसके ललाट पट्टमें, पवित्र पुण्यकी रेखाएँ झलक रही हों, वही सज्जन, धर्मकी सडकका मुसाफिर बन सकता है। दुनियामें हजारों लाखों करोडों राजा, महाराजा, महाराजाधिराज गुंज रहे हैं, और पृथ्वीको छत्र बनाके अखण्ड साम्राज्य भोग रहे हैं, मगर धर्मराजा कहाँ ?, ऐसा साम्राज्य पानेकी तकदीर, उतनी दुर्लभ नहीं, जितनी दुर्लभ, धर्म" पानेकी तकदीर है, धर्मको प्राप्त किये हुए लोग, जगत्में संख्याबंध अर्थात् अंगुली पर गिनतीके हैं । सब कोई, अपनी मनमानी बातको धर्म समझ, अपनेको धर्मात्मा मान बैठे हैं, मगर समझना चाहिये कि सत्य धर्म बहुत दूर है, धूलके ढेरमेंसे गेहूंके कणोंकी तरह दुनियाके मजहबोंमेंसे, सत्य धर्मके तत्वोंको जुदा करना, यह थोडी बुद्धिका काम नहीं है । जिनके दिमाग, न्यायके मैदानमें, तरह तरहकी कुश्ती कर मजबूत पक्के और स्वच्छ हुए हों, वे ही, प्रमाण-युक्ति रूप कसौटी पर, धर्मका निश्चल इम्तिहान कर सकते हैं; यह पक्की बात है कि जिसका दिमाग, न्यायकी तीक्ष्ण ज्वालाको नहीं सह सका, उसका सादा-भोला दिमाग, सत्य धर्मकी चिंता पर, कभी स्थिर नहीं रह सकता, अतः बुद्धिका विस्तार करनेके लिये-अक्लको तेजस्विनी बनाने के लिये, न्याय शास्त्रका पढना बहुत जरूरी है।

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