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न्याय-शिक्षा ।
रहती) समस्त वस्तुओंमें नित्यत्व और अनित्यत्व के एक ही साथ रहने का अनुभव तो पहले बता ही दिया है। एवंरीत्या
और भी धर्मोंके रहनेका अनुभव प्रकार, स्वप्रज्ञासे परिचय कर लेना चाहिये।
इस विषयमें दूसरे विद्वानोंका यह कहना होता है कि 'स्याद्वाद संशय रूप बन जाता है, क्योंकि एक ही वस्तुको सत् भी कहना और असत् भी कहना, यही संदेहकी मर्यादा है। जब तक, सत् और असत् इन दोनों से एक ( सत् या असत्) का निश्चय न होवे, तब तक, सत् असत् इन दोनों रूपसे एक वस्तुको समझना, यह सच्चा ज्ञान नहीं कहलाता। लेकिन यह कहना बिलकुल ठीक नहीं है, क्योंकि एक ही चीजमें सत्त्व असत्त्व ये दोनों धर्म जब उक्त अनुभवसे प्रामाणिक हैं, तो फिर उन दोनोंको निश्चय रूपसे मानना, संदेह कैसे कहा जायगा ? । संदेह तो यही कहलाता है कि 'यह पुरुष होगा या वृक्ष ?? यहां न पुरुष पनका निश्चय है, न तो वृक्ष हो नेका निश्चय है। इस लिये यह ज्ञान संशय कहा जा सकता है। मगर प्रकृतमें तो वस्तु सत् भी निश्चित है, और असत् भी निश्चित है, अतः सत् असत् इन दोनोंका ज्ञान, सम्यक् ज्ञान क्यों नहीं । अन्यथा एक ही पुरुषमें भिन्न भिन्न अपेक्षा द्वारा पितृत्व पुत्रत्व वगैरह धर्म कैसे माने जायँगे। इन धर्मोंका मानना झूठा क्यों न कहा जायगा ? । अतः अनुभवबलात् सिद्ध हुई बातको माननेमें किसी प्रकार दोष नहीं है । . खतम हो चुका प्रमाण विषयक वक्तव्य, अब नयके ऊपर नजर कीजिये -