Book Title: Nyayashiksha
Author(s): Nyayavijay
Publisher: Vidyavijay Printing Press

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Page 42
________________ वादका. स्वरूप ।। २९ वादी-सर्वज्ञ, प्रतिवादी तो, जिगीषु १०, स्वात्मामें तच्चज्ञानका इच्छु ११, प्रतिपक्षीमें तत्त्वज्ञानका इच्छु असर्वज्ञ १२ ( सर्वज्ञ नहीं ) । बारह हुए। जहाँ जिगीषु, वादी अथवा प्रतिवादी है, वह वाद, सभ्य-मध्यस्थ, और सभापतिके समक्ष ही में होता है, नहीं तो. शायद उपद्रव होनेका प्रसङ्ग आ जाय, इसी लिये जिगीषु के वादको चतुरङ्ग, अर्थात् वादी, प्रतिवादी, सभ्य, और सभापति, इन चार अङ्गों करके युक्त होना शास्त्रकारोंने फरमाया है। जहां तत्त्व निश्चयके उद्देश वाले. वादी व प्रतिवादी मिले हों, वहाँ तो सभ्य, सभापतिकी कोई अपेक्षा नहीं, क्यों कि वादी प्रतिवादी, खुद जब तत्वके इच्छु हो, तो सभापति न रहते भी शठता-कलह ोनेका कोई प्रसङ्ग नहीं आ सकता, हाँ इतना जरूरहै कि दूसरेकी आत्माको तत्त्वज्ञानशालिनी बनाना चाहने वाला अपूर्णज्ञानी प्रतिवादी,सिंह गर्जना करता हुआ भी अगर अच्छी तरह तत्त्वके निर्णयकरनेकी शक्ति न फैलासके, तो जरूर वहाँ मध्यस्थ-सभ्यमहाशर्योकी अपेक्षा पड़ेगी, इसमें कहना ही क्या ? । अगर च, तत्त्व निर्णयको चाहने वाले, वादी और प्रतिवादीमें कोई सर्वज्ञ होगा, तब तो किसी सुरतसे सभ्य, सभापतिकी अपेक्षा नहीं पड़ सकती; तब ही पडेगी, यदि सर्वज्ञके साथ जिगीषुका वाद चला हो । जिगीषुके साथ वादमें उतरे हुए, सर्वज्ञ, वा अपूर्ण ज्ञानी, जिगीषुको तत्त्वज्ञानी बनाना चाहते हैं, जब, जिगीषु, छल भेद, युक्ति प्रयुक्ति, अथवा प्रमाण-तर्कसे, उनका परा

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