Book Title: Nyayashiksha
Author(s): Nyayavijay
Publisher: Vidyavijay Printing Press

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Page 44
________________ वादका स्वरूप। तत्वविवेचनका काम पडेगा तो क्या बोल सकेगा, इसलिये पहले प्रज्ञागुण सभापतिमें अपेक्षित है । बसुन्धरामें जिसका हुक्म-प्रताप स्फुरायमान न हो, वह, वाद-सभाके कलहफिसादको कैसे हटा सकेगा ? इसलिये, दूसरा आज्ञैश्वर्यगुण सभापतिमें अवश्य जरूरका है । भूपति-राजालोग, अगर अपना कोप सफेल न कर सकें, यानी अपने कोपका फल अगर न बतावें, तो अकिञ्चित्करत्वके उदाहरणोंमें, उनका प्रवेश होगा, इसलिये राजाका कोप जब सफल ही होता है, तो कोपी राजाके सभा पतित्वमें वादकी नाक ही कट जायगी, इसलिये क्षमागुण भूषित, सभापति होना चाहिये । सभापति, पक्षपाती होगा, तो सभ्यलोग भी, प्रतापी सभापति, और अन्याय कलड़के डरके मारे वेचारे, ' इधर शेर, उधर नदी' का कष्ट उठावेंगे, इसलिये, सभापति, मध्यस्थ होना चाहिये । प्रश्न-सभापतिके कौनसे कर्म हैं । - उत्तर-वादि-प्रतिवादि और सभासदोंके कहे हुए पदार्थोंका अवधारण करना, वादि-प्रतिवादिमें, अगर कलह हो जाय, तो उसे दूर करना, "जो जिससे हार जाय, वह उसका शिष्य हो,” इत्यादि जो कुछ प्रतिज्ञा, वादके पहले हो चुकी हो, उसे, प्रतिपालन कराना, पारितोषिक देना, इत्यादि सभापतिके कर्म हैं। जिगीषु सहित वाद, चतुरङ्ग है । जिगीषु और सर्वज्ञ रहित वादमें, सिर्फ सभ्यकी अपेक्षा कभी होती है, कभी नहीं होती, जिगीषु रहित वादमें सभापतिका तो काम ही नहीं

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