Book Title: Nyayashiksha
Author(s): Nyayavijay
Publisher: Vidyavijay Printing Press

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Page 43
________________ न्याय-शिक्षा । जय करनेके साथ, अपनी तरफ जयश्रीका आकर्षण चाहता है, कहिये ! अब, ऐसे जिगीषुके चक्र जालमें, बेचारा स्वात्मामें तत्त्वज्ञान चाहने वाला उपस्थित हो सकता है ?, हर्गिज नहीं, वह तो अपनी आत्मामें तत्त्वज्ञानका जन्म देनेके लिये, दूसरेको तत्त्वज्ञानी बनाना चाहने वाले-मायोपशमिक ज्ञानी अथवा सर्वज्ञ, इन्हींके साथ, प्रमाण, तर्क, युक्ति प्रयोगद्वारा वाद-कथा चलाता है ।। प्रश्न-वादके लिये सभ्य कैसे होने चाहिये ? । उत्तर-वादि-प्रतिवादिके सिद्धांतोंके समझनेमें बहुत कुशल, उनकी धारणा करनेवाले, बहुश्रुत, प्रतिभा, क्षमा, और माध्यस्थ्य वाले, और वादी प्रतिवादी, दोनोंकी सम्मति पूर्वक मुकरर किये गये सभ्यलोक, वादके कामके काबिल होसकतेहैं। प्रश्न-सभासदोंके कौनसे कर्त्तव्य हैं ? । उत्तर-वादके स्थान, और कथा विशेषका अङ्गीकार करवाना, “इसका प्रथम वाद, और इसका उत्तरवाद," इसका नियमकरना,साधक-बाधकगक्तके गुण-दोषका अवधारण करना, समय अनुसार तत्त्वको प्रकाश कर कथा बंद करदेना और यथायोग्य, कथाके जय-पराजय फलकी उद्घोषणा करना, अर्थात् “ इसकी जय हुई, यह पराजित हुआ," ऐसा फल प्रकाश करना, ये सभासदोंके कर्म हैं। प्रश्न-सभापति कैसा होना चाहिये ? । उत्तर-प्रज्ञा, आज्ञै-श्वर्य, और मध्यस्थता गुणसे अल. ङ्कत होना चाहिये । प्रज्ञाविनाका सभापति, किसी प्रसंगपर

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