Book Title: Nyayashiksha
Author(s): Nyayavijay
Publisher: Vidyavijay Printing Press

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Page 34
________________ प्रमाण का विषय । २१ न्तसे वस्तुमात्रमें उत्पाद व्यय और ध्रौव्य, समझ लेने चाहिये। और यही तो जैनियोंका माना हुआ स्याद्वाद है । क्योंकि जैनशास्त्रकार समस्त वस्तुओंमें, सत्व असव, नित्यत्व अनित्यत्व, वगैरह सापेक्ष रूपसे, अनंत धर्म मानते हैं । जैसे एक ही पुरुषमें, उसके पिता और पुत्रकी अपेक्षासे पुत्रत्व और पितृत्व रहते हैं, एवं और भी अपेक्षाओंसे मातुलस्व-भागिनेयत्व वगैरह अनेक धर्म पाये जाते हैं। वैसे भिन्न भिन्न अपेक्षाओंसे, एकही वस्तुमें सत्त्व असत्त्व वगैरह अनंत धर्म, अगर माने जाय, तो कौन, क्या दोष बता सकेगा। समझना चाहिये कि क्या वस्तु, केवल भाव रूप हो सकती है ? हर्गिज नहीं। अगर केवलभावरूप ही वस्तु मानी जाय, तो एक ही घट चीज, पटरूप, हस्तीरूप, अश्वरूप क्यों न हो जायगी ?। सर्व प्रकारसे भावपन माननेमें एकही वस्तुके सारा विश्वरूप होनेका दोष कभी शान्त न होगा । इसलिये सब वस्तुओंको, अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-और भाव रूपसे, सत, और पराये द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव रूपसे, असव मानना चाहिये । जैसे कि द्रव्यसे घट, पार्थिव रूपसे है, मगर जल रूपसे नहीं है। क्षेत्रसे अजमेर में बना हुआ घट, अजमेरका कहाता है, न कि जोधपुरका । कालसे हेमंत्रऋतुमें बना हुआ घट, हैमन्तिक कहाता है, न कि वासन्तिक। भावसे शुक्ल घट, शुक्ल है, न कि काला। इससे, 'सत्त्व-असत्त्व' ये दो धर्म प्रत्येक वस्तुमें एक ही समयमें हमेशा रहा करते हैं। यह बता दिया, और प्रतिक्षण पलटती रहती (पूर्व परिणामको छोड, दूसरे परिणाममें आती

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