Book Title: Nyayashiksha
Author(s): Nyayavijay
Publisher: Vidyavijay Printing Press

View full book text
Previous | Next

Page 33
________________ न्याय-शिक्षा ।.. : । अब प्रमाणका विषय देखिये:-सामान्य और विशेष वगैरह अनेक धर्मात्मक वस्तु, प्रमाणका विषय है। ... नैयायिक वगैरह विद्वान् लोगोंके अभिप्रायसे सा. मान्य और विशेष, ये दो परस्पर निरपेक्ष होकर वस्तुसे एकान्तभिन्न रहते हैं। मगर जैन शास्त्रकार, उन दोनों को परस्पर सापेक्ष भाववाले और वस्तुके स्वरूप मानते हैं। वह सामान्य दो प्रकारका है-एक तिर्यक् सामान्य, और दूसरा ऊर्ध्वता सामान्य । उनमें प्रथम सामान्य-प्रतिव्यक्ति, समान परिणामको कहते हैं, जैसे गोत्व आदि। और ऊ लता सामान्य वह है, जो कि पूर्वापर पर्यायोंमें अनुगत रहता हो, जैसे कटक-कंकण वगैरह भिन्न भिन्न पर्यायोंमे चला आता सुवर्ण वगैरह। एवं विशेष भी दो प्रकारका है-गुण और पर्याय । उनमें सहमावी गुग, और क्रमभावी पर्याय समझना चाहिये। . उत्पाद, व्यय, और धौव्य, इन तीन रूपोंसे युक्त ही होना वस्तुमात्रका लक्षण है । और यही प्रमाणका विषय है । सभी वस्तुओंमें जब नया पर्याय पैदा होता है, तब पूर्व पर्याय चला जाता है, तो यही उत्पाद और व्यय हुआ समझिये । और सभी पर्यायोंमें बराबर अनुगत (साथ ही चली आती) चीज कभी नष्ट न होनेके कारण ध्रुव कहाती है, और इसीसे वस्तुमें ध्रौव्य भी पाया जाता है । जैसे कटकको तोडकर जब कंकण बनाया, तो पहला कटक परिणाम चला गया, और नया कंकण प. योय पैदा हुआ , मगर उन दोनों पूर्व उत्तर ( कटक-कंकण ) पर्यायों में सुवर्ण तो वैसेका वैसा ही रहता है । बस! इसी दृष्टान

Loading...

Page Navigation
1 ... 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48