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प्रमाणका प्रयोजन, व विषयं ।
नासे वस्तु कथंचित् अवक्तव्य है ४ । विधि कल्पना और युगपत् विधि व निषेध कल्पनासे वस्तु कथंचित् सत् ‘और कथंचित् अवक्तव्य है ५ । निषेध कल्पना और युगपत् विधि व निषेध कल्पनासे वस्तु कथंचित् असत् और कथंचित् अवक्तव्य है ६ । क्रमसे विधि व निषेध कल्पना और युगपत् विधि । निषेध कल्पनासे वस्तु कथंचित् सत् कथंचित् असत् और कीचत् अवक्तव्य है ७।
यह सप्तभंगी दो प्रकारकी है-एक सकलादेश रूप, और दूसरी विकलादेश रूप ।
उनमें सकलादेश-प्रमाणके ग्रहण किये हुए अनंत धर्मस्वरूप वस्तुके, काल वगैरह करके अभेद वृत्तिकी मुख्यता अथवा अभेद वृत्तिके आक्षेप (उपचार) से, युगपत् प्रतिपादन करने वाले वाक्यको कहते हैं। और इससे विपरीत यानी नयके ग्रहण किये हुए वस्तु धर्मके, भेद वृत्ति अथवा भेदके उपचारसे. क्रमशः प्रतिपादन करने वाले वाक्यको, विकलादेश कहते हैं।
इस प्रकार प्रयक्ष और परोक्ष दोनों प्रमाण बता दिये। अब प्रमाणका प्रयोजन समझना चाहिये
सभी प्रमाणोंका साक्षात् प्रयोजन,अज्ञानका ध्वंस-विनाश है । और परंपरा प्रयोजन, वस्तुके ग्रहण,परित्याग और उपेक्षा करनेकी बुद्धि पाना है । और केवलज्ञानका परंपरा प्रयोजन, माध्यस्थ्य-उदासीनता यानी सर्वत्र उपेक्षा है। . .
... यह प्रयोजन प्रमाणके साथ न सर्वथा भिन्न है, न तो. सर्वथा अभिन्न है, किंतु कथंचित् भिन्नाभिन्न है। तब ही. परस्पर प्रमाण व फलका व्यवहार बन सकता है ॥ .....