________________
२६.
न्याय-शिक्षा ।
. तथाहि- योग आचाोंने अदृष्टको आत्माका गुण, कापिलपंडितोंने प्रकृतिका विकारखरूप, बौद्धोने वासना स्वभाव, और ब्रह्म वादियोंने अविद्या स्वरूप माना है। मगर जैन शास्त्रकार उसको पौद्गलिक स्वरूप मानते हैं ।
प्रमाण व नयका तत्त्व बता चुकें, अब प्रमाण के प्र. योग होनेका स्थानभूत वाद भी थोडा सा बता देते हैं. वादी और प्रतिवादीकी, आपसमें स्वपक्षके साधने, और दूसरे (विरुद्ध) पक्षके तोडनेकी चर्चाका नाम है वाद ।
वादका प्रारम्भ, दो प्रकारसे होता है, एक विजयलक्ष्मी की इच्छासे, दूसरा, तत्त्वके निश्चय करनेकी इच्छासे; इसीसे यह बात खुल जातीहै कि वादी और प्रतिवादी, दोनों दो दो प्रकारके होते हैं-जिगीषु, यानी जय चाहने वाले, और तत्त्वनिर्णिनीषु, अर्थात् तत्त्वका निश्चय चाहने वाले। तत्त्वनिर्णिनीषु भी दो प्रकारके, एक, अपनी आत्मामें, तत्त्वज्ञान चाहने वाले, दूसरे, प्रतिपक्षीकी आत्मामें तत्त्वज्ञानकी उत्पत्ति चाहने वाले । प्रतिपक्षीकी आत्मामें तत्त्वज्ञानकी उत्पत्ति चाहने वालेभी दो प्रकारके, एक तोक्षायोपशामिक ज्ञानी, अर्थात् अ. पूर्ण ज्ञानी,और दूसरे सर्वज्ञ । ये ही चार प्रकारके वादी और प्रतिवादी हुए, इनमें पहिले जिगीषका वाद, छोड, स्वात्मामें तत्त्वनिश्चय चाहने वाले को, सबके साथ हो सकता है, स्वात्मामें तत्त्वानिश्चय चाहने वाला तो खुद ही जब तत्त्वज्ञानकी प्याससे व्याकुल है, तो जय चाहने वालेके साथ उसका संबन्ध, मियाँ महादेवकी तरह, कैसे सङ्गत हो सकता है ? । एवं स्वात्मामें तत्त्वज्ञान चाहने वालेके साथ भी उसका वाद न