Book Title: Nyayashiksha
Author(s): Nyayavijay
Publisher: Vidyavijay Printing Press

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Page 14
________________ अहम् शास्त्रविशारद-जैनाचार्य श्रीविजयधर्मसूरिभ्यो नमः न्याय शिक्षा। जैनसिद्धान्तमें वस्तुका अधिगम-परिचय, प्रमाण व नयसे माना है। उनमें, प्रमाण किसे कहते हैं ?, प्रमाणके कितने प्रकार हैं?, प्रमाणका प्रयोजन क्या है ?, प्रमाणका विषय कैसा है ?, इत्यादि प्रथम प्रमाण संबंधी विचार किये जाते हैं ज्ञान विशेषकर नाम प्रमाण है, जिससे यथास्थित वस्तुका परिचय हो, उसे प्रमाण कहते हैं । प्रमाण, ज्ञान छोड जड़ वस्तु हो ही नहीं सकती, क्योंकि जड पदार्थ खुद अज्ञान रूप है वो दूसरेका प्रकाश करनेकी प्रधानता कैसे पा सकता है ? । जैसे प्रकाशस्वरूप प्रदीप, दूसरेका प्रकाशक बन सकता है, वैसे स्वसंवेदन ज्ञान ही दूसरेका निश्चायक हो सकता है । जो वस्तु खुद ही जाड्य अंधकारमें डूब रही है, वह दूसरेका प्रकाश क्या खाक करेगी इस लिये स्वसंवेदनरूप ज्ञान ही दूसेरका प्रकाश करनेकी प्रधानता रख सकता है। इसीसे ज्ञान ही प्रमाण कहा जाता है, न कि पूर्वोक्त युक्तिसे इन्द्रियसनिकर्षादि । सहकारि कारणता तो इसमें कौन नहीं मान सकेगा ? । एवंच ज्ञान मात्र, स्वसंवेदनरूप होनेसे, संदेह-भ्रम वगैरह ज्ञानोंमें प्रमाण पदका व्यवहार हटानेके लिये बाह्य-घटादि वस्तुका यथार्थ परिचय कराने वाले (निर्णय-ज्ञान ) को प्रमाण कहा है । वह कौन ?, उपयोग

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