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नीतिदीपिका
चोरी से हानि--- कीर्तिः कालमुपैति कल्मषततिस्फूर्ति परामृच्छति, लज्जा लीनतरा भक्त्यपि सुख लीनं व्यथा बद्धते । क्रूरा पापमतिर्भवत्यनितरां भीनिभवेत्सर्वतः, स्तेये बुद्धिमतां महत्यपि लघौ कि किन दुःख भवेत् ॥
चोरी करने वाले की काति नष्ट होजाता है ! पापपुञ्ज अ. विक बढ़ जाता है, लज्जा विलीन हो जाती है । मुग्व का नाश होता है और दुःख बढ़ता है । कर पापबुद्धि पैदा होती है, तथा चारों ओर से भय प्राप्त होता है , अत: चोरी छोटी हो या बढ़ी बुद्धिमानो की उससे कौन कौनसा दुःश्व उत्पन्न नहीं होता है ॥३५॥ नित्यं दुर्गतिमागविस्तृतिपरं मद्दषणं भूतिभि
पुण्याम्भोरहचन्द्रिकाविलगने पापवर्षादकम् । मानग्लानिकरं वृषद्रुदहनं दैन्यप्रदं दुग्वस्तैन्यं मविपत्तिद भयकर हेयं हितेच्छावता॥३६।।
चारी सदा दुर्गति के मार्ग को बढ़ाकर दोपों को उत्पन्न करती है। ऐश्वर्ष का नाश का पुण्यरूपी कनन का संकोच करने को चन्द्रमा की चांदनी के समान है, नया पाप रूपी वृक्ष का हग भग रखने के लिए वर्णा के जल के समान है । सन्मान को मलीन कर धर्मरूपी वृक्ष को जलाने वाली है। दीनता तथा दुग्न का उत्पन्न कर सम्पूर्ण विपत्तियों की जननी है ! महाकावन वाले को ऐसी भयङ्कर बोरी का त्याग करना नायि॥३६॥
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