Book Title: Niti Dipak Shatak
Author(s): Bhairodan Jethmal Sethiya
Publisher: Bhairodan Jethmal Sethiya

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Page 33
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मीतिदीपिका (३१) स्वामी की सेवा करते हैं । मृत्यु देनेवाले बुरे कार्य करते हैं, नथा संसार में निन्दा फैलाने वाले आचरण करते हैं ॥५७ ॥ मत्कृत्याम्बुधिकुम्भजोऽयमरणिः क्रोधानलोत्पादने, मूलं मोहविषाध्रिपस्य जलदः प्रच्छादने सन्ततम् । प्रोद्यत्तापनिधेः कलेश्च सदनं व्यापनदीसागरः, कामं कीर्तिलताकलापकलभोलोभः सदा त्यज्यताम् ।। ___ यह लोभ सत्काररूपी समुद्र को सोखने के लिए अगस्त्य ऋषि के समान, तथा क्रोधाग्नि को उत्पन्न करने के लिए अरणि काट के समान है । मोहरूप विषवृक्ष की जड़, तथा सदा उत्तम गुणों को ढकने के लिए मेघ के समान है। अनेक संताप और कलह का घर, विपत्तिरूपी नदियों को आश्रय देने के लिए समुद्र के समान, तथा कीर्ति रूपी लताओं को नष्ट भ्रष्ट करने के लिए हाथी के बच्चे के समान है । इस लोभ को सज्जन पुरुष त्याग दें ॥ ५८ ॥ लोभीज्ञानमहोदयाम्बुजविधुर्लोभो विवेकाम्बुदप्रोद्धान्तानिलसंहति : शुभमतिप्रोघल्लताकुन्जर । लोभ : सत्यसुवृत्तनाशनपटुर्लोभो विपजन्मभू, स्वर्गद्वार कपाट एष विबुधैस्त्याज्यो हिताकातिभिः॥ लोभ ज्ञान की उन्नतिरूप कमल को संकुचित करने के लिए चन्द्र समान है । विवेक-स्वपर का भेदज्ञानरूप मेघ को उडाने के लिए तेज आंधी के समान है। उत्तम मतिरूपी लताओं For Private And Personal Use Only

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