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सेठियाग्रन्थमाला
(४४)
मेघ नाशयितु यथैव मरुतं हित्वा न कश्चित्क्षम - स्तवत्कर्मचयं विना न तपसा हर्तुं समर्थ परम्॥८३॥
जैसे वन को भस्म करने के लिए अग्नि के सिवा दूसरा कोई समर्थ नहीं है । वन में लगी हुई अग्नि को शान्त करने को मेघ के सिवा किसी दूसरे की सामर्थ्य नहीं है । मेघ का विश्वंश करने के लिए पवन को छोड़कर अन्य कोई सपथ नहीं है। इसी प्रकार कर्मममूह का नाश करने के लिए तप के सिवा दूसरा कोई समर्थ नहीं है ।।८३॥ मन्तोषः खलु यस्य मूलमनिशं पुष्पं शमश्चाभयं, पत्रं यस्य समस्ति चेन्द्रियजयः शाग्वा प्रवालोद्गमः । शीलं यस्य सुवृत्तयुक्तमतुलं श्रद्राम्बुसेको वर्ग, दत्ते मोक्षफलं विकाशममये माऽमतपःपादपः॥८४॥
जिस तप रूपी वृक्ष की जड़ गन्तोष, और श्रद्धा जन्न मींचन के समान है । शान्ति जिसके पुष्पों और अभयदान पत्तों के समान है । इन्द्रियों का जय जिसकी डालियों और सम्यक च रिकामहित शालबत प्रवाल कोंपलों के समान है। पूर्ण विकाशका गा जिन्य मन का फल मोक्ष होता है । म अनुपाग नप पा वृक्ष की प्राय लेना चाहिए
भावना की महिमा--- क्लोबे चन्द्रमुखीकटाक्षरचना व्यर्था यथा लुब्धके, सेवा ग्रावणि पद्मरोपणमिवाम्भावर्षां चोषरे ।
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