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श्री सेठिया जैनमन्थालय (शास्त्रमण्डार) ग्रन्थमाता
EEEEEEEEIRECMPAN
पुष्प नं० ५० ਵਿਭੰਗੀ ਹੋਵਾਬ ਬਹਾਰ ਬਾਬਰ ਨੂੰ
සපයළාපසයක
ज्ञान भंडार राजार इन्दौर SH
* श्रीवीतरागाय नमः
नीतिदीपक शतक,
(भाषानुवाद-सहित)
बाद भान र
प्रकाशक
भैरोंडान जेठमल सरिया
यह पुस्तक यक्ष से रक्खें और यमाले पदे
कीमन हो आने सोमी शानखाते में
लागेगी
वीर निर्माण सम्बत २४५२ असमाधानबाल सम्बत् १९६२ Haad ई०सन् १६
जेन प्रिटींग प्रेसमा नामोशियाका बाकानर 15-10-2624000
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सेठिया जैनग्रन्थमाला की पुस्तकें:
सामाधिकसूत्र मूल पाठ तथाविधि प्रतिक्रमण मूलपाठ और विधि प्रकरण (थोकडा) संग्रह भाग दूसरा पक्की जिल्द रु० १) सामायिक शब्दार्थ, भावार्थ, और कोषसहित रु० =) प्रतिक्रमणसूत्र शब्दार्थ, भावार्थ, विधिसहित रु० =)
तैंतीस बोल का थोकड़ा
जैन बालोपदेश
गुणविलास (विविधप्रकारस्तवन) मांगलिक स्तवन संग्रह भाग पहला
महावीरस्तुति वृहदालोयणा जैन सिद्धान्तकौमुदी पक्की जिल्द
55
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प्रस्तार रत्नावली (इस में गांगेय अनगार के भांगे, श्रावकव्रत के भांगे और आनुपूर्वी के भांगे हैं) पत्राकार पृष्ट २८० पक्कीज़िल्द रु० ११=) कर्तव्यकौमुदी द्वितीय भाग हिंदी सानुवाद
रु० ।-)
क्रिया कर्म वैराग्य
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श्रावक के बारह व्रत
59
59
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55 99 १७ दूसरा
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नंदीसूत्र मूल पाठ नमि वना-अन्वयार्थ भावार्थ संस्कृत छाया सहित रु०६)
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ন্যাশনাখায় নম: ॥ नीतिदीपिका ॥
(भावार्थसहित)
मङ्गलाचराम
शार्दूलविक्रीडितवृत्तम यद्राक्चन्द्रिकया चकारचरिताश्चारित्रिणश्चित्रकृ
चारित्राबत चिन्मयेऽचलमते सम्बोधिता बोधत: भव्यानां भवजालभीतमनमामज्ञानमुन्मीलितं मोऽव्याद्रो वृषलाञ्छना वृषपतिः श्रीमयुगादिप्रभुः॥१॥
जिन आदिनाथ भगवान् की बागीरूप चन्द्रमा की चांदनी को चारित्रधारी पुरुष चकोर के समान आचरण करते हैं, तथा जिन्होंने उत्तम संयमियों को ज्ञान द्वारा निश्चल चैतन्य मत में स्थापन कियाहै, और जिनके वृषभ का चिह्न हैं, ऐसे धर्म के पति---श्री आदिनाथ स्वामी सम्हारी रक्षा
नम ---
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सठियाप्रन्धमाता
कवि अपनी लघुता प्रकट करते हैं. सन्तः सन्ततमेव सन्तुसरलाः सद्बोधहीनस्य मे,
__ मूढस्यापि सदा प्रसन्नमनसः सर्वत्र सदृष्टयः। किंवा संहरते कदापि किरणानालादसंवर्द्धका
नीचानामपि वेश्मनोऽमृतनिधिर्नक्षत्रचूडामणिः॥
मैं बोधहीन हूं, सज्जन पुरुष मेरे साथ सदा सरलता का व्यवहार करें,क्योंकि उदार पुरुष मूर्ख पर भी सदा प्रसन्नचित्त रहते हैं। क्या तारागण का चूड़ामणि चन्द्रमा अपनी आनन्द देनेवाली अमृतमयकिरणों को चाण्डाल आदि नीचपुरुषों के घर से संकोच लेता है ॥२॥
भन्यजीवों के प्रति हितका उपदेश आयुः साधनमन्तरेण विफलं वर्गत्रयोत्पादकं ,
नृत्वं प्राप्य सुदुलभं बहुतपः साध्यवृथा मा कृथाः धर्मो रक्षति दुर्गतेनरवरं सिद्धिं च सम्पादयन् , कामार्थावपि वर्द्धयेद्धितकरौ कृत्वा वशे तौयतः॥३॥
जिसने धर्म अर्थ और काम पुरुषार्थ का साधन नहीं किया है, उसका मनुष्यजन्म पाना निष्फल है। यह मनुष्यपर्याय अत्यन्त दुर्लभ है, इस को व्यर्थ नहीं खोना चाहिये । लेकिन इस स तपधर्म का पालन करना चाहिये, क्योंकि धर्म ही मनुष्य को दुर्गति स बचाता है और मोक्ष देता है। तथा काम- इन्द्रियमुख और अर्थ-- धन की प्राप्ति भी इसी के आधीन है अर्थात् संसारी जीवों को सुएखदायी अर्थ और काम है, इन की प्राप्ति भी धर्म से ही होती है,
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交换房
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inte
इसलिए धर्म अर्थ काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थ की सिद्धि का मुख्य उपाय एक धर्म ही है || ३ ||
प्राप्यैतन्नरजन्म दुर्लभतरं धर्मे न ये कुर्वते,
ते क्लेशाय भवेयुरेव तनयाः पित्रोः कुलस्याऽऽधयः । लब्धं कल्पतरं विहाय सुखदं नानाप्रमादान्विताः,
धत्तरं हि कठोरकण्टकयुतं संशोधयन्ते भ्रमात् ॥ ४ ॥
जो मूर्ख अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर धर्म का सेवन नहीं करते हैं, वे केवल अपने माता पिता को कष्ट के लिये हुए हैं, और कल को पीड़ा देने वाले हैं, तथा ऐसे प्रमादी - आलसी मनुष्य प्राप्त हुए सुखकारी कल्पवृक्ष को त्याग कर सुख के लिए तीखे कांटे वास्ते धतूरेको देते हैं ॥ ४ ॥
मनुष्यजन्म की सर्वोत्कृष्टतापात्रे रत्नमये पदं कलुषितं प्रक्षालयेन्मन्दधीः, पीयूषेण स वाहयेत्क रिवरं काष्ठाश्ममृत्कण्टकान् । काकानुडुयितुं क्षिपेत्करतला च्चिन्तामणि सागरे, दुष्प्रापं नरजन्म यो गमयति व्यर्थे प्रमादादिभिः ॥ ५ ॥
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जो प्राणी इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर आलस्य विषय कषाय निद्रा आदि में गाता है, वह मूर्ख रत्नके पात्र में अमृत से मैले पैर धोता है। हाथी पर कांटे मिट्टी काठ पत्थर लादता है। हाथ में रखे हुए चिन्तामणि रत्न को काग उड़ाने के लिये समुद्र में फेंकता है ॥५॥
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मठिया
भ्रम को त्याग कर विषयमंत्रन में जीवन बिताने वाले
मनुष्य की मुखनाते पीयूषघटं विहाय मननं गृह्णन्ति हालाहलं, ते तिष्ठतिशिलातले जलनिधो त्यक्त्वान्तिकस्थां नरिम
स्वारामे निवपन्निकण्टकतम्नुन्मूल्य कल्पहन. ये धर्म परिहृत्य लब्धप्रनिशं धावन्नि कामाशयाः।।६।। ___ जो मूर्ख धर्म को त्यागकर निरन्तर विषयभाग में लीन रहते हैं. त अमृत घट को छोड़कर हलाहल विष को ग्रहगा करते हैं, समुद्र पार करने के लिए पास में ग्वीहई नावको छोड़ कर शिलापर सवार होने हैं , तथा कल्पवृक्ष को उखाड़कर अपने बीच में कांटे के वृक्ष लाने
संसार समुद्र को पारकरने के लिए धर्म और गुरु की आवश्यकता
मंसाराम्बुनिधो मनोरथशतोडल्लनरङ्गाकुले, ___दाराऽपत्यकुटुम्बनऋबहुले धर्मस्वरूपा नरिः। तिष्ठन्त्यत्र समाधिशान्तमनसोये मानवाः प्रमत
स्ते पारं द्रुतमेव यान्ति निकटे चेत्कर्णधारो गुरुः मंसार समुद्र के समान है, इसमें अनेक मनोरथ रूपी महाभयानक लहरें उठाकरती हैं, और यह स्त्री पुत्रादि कुटुम्बरूपी मगर घड़ियाल आदि हिंसक जलचर जन्तुओं से भरा हुआ है। इस संमार समुद्र को पार करने के लिए एक धर्मम्पी नौका है । जो मनुष्य टुम मंमार में
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नातिदीपिका
निराकुल और शान्तचित्त में रहते हैं. वे खेवटिया के समान सद्गुरु को पाकर अतिशीघ्र पार होते हैं ॥७॥
हिंसा आदि पापों और क्रोधादि कषायों को रोकने की प्राथश्यकताभक्तिर्देवगुरौ तथा जिनमते सङ्के विनाशं गता,
हिंसाद्याश्रवपञ्चकेन रिपभिर्व्याप्त क्रुधाद्यैः परम् । सौजन्यं गुणिसङ्गमोऽक्षदमनं दानं तपो भावना,
वैराग्यं परमापकार्यमधुना कार्य हि तत्पोषणम् ॥ हिंसा असत्य चोरी अब्रह्म(कुशीन)और परिग्रह इन पांच माश्रवों (पापों)ने देव गुरु जैनधर्म और संघ की भक्ति का नाश कर दिया है। सजनता को क्रोधादि शत्रओं ने दबा रक्खा है, तथा गुणवान् पुरुषों की सङ्गति, इन्द्रियों का दमन,दान,तप,भावना और वैराग्य इस, समय अत्यन्त क्षीण हो गये हैं, इसलिए इन का पालन पोषण करना चाहिये ॥८॥
____ अरिहन्त भक्ति से होनेवाले लाभअर्हक्तिनभोमणौ समुदितेऽज्ञानान्धकारो महा
नश्यत्यत्रमनोऽम्बुज विकसति प्रोबोधितानांनृणां । खेदं कश्मलघूकलोकनिचयः प्राप्नोति चान्ध्यं महम्लानि मोहमहाभिमानकुमुदान्यामादयन्ति क्षणात् ॥ ___ अरिहन्त भक्तिरूप सूर्यका उदय होने पर जीवों का अज्ञानान्धकार दूर होता है, उपदेश को ग्रहण करने वाले मनुष्यों का हृदयकमल
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सेटिवाग्रन्थमाला
खिल जाता है,उल्लूस्वरूप पापी लोग अन्धे हो जाते हैं तथा खेद को प्राप्त होते हैं, और मोह अभिमान रूपकुमुद पुष्प तत्काल मुआ जाता है।॥६॥ खर्गस्तत्सदनाङ्गणे सहचरी साम्राज्यसम्पन्मुदा,
युक्ता तत्तनुमन्दिरे गुणगणा राजन्ति मान्या बुधैः । मोक्षश्रीः करगा भवस्तु सुतरस्तत्सन्निधौ लब्धयो, यः शुद्धेन हृदाम्बुजेन विधिना भक्तिं करोत्यहताम्॥१०॥ ___ जो मनुष्य शुद्ध हृदय- कमल से विधिपूर्वक अरिहन्त देव की भक्ति करता है, उसके स्वर्ग, घरके आंगन समान निकट है । राज्यलक्ष्मी हर्षपूर्वक उस पुरुष के साथ साथ गमन करती है। विद्वानों से आदर करने योग्य गुण इकट्ठे होकर उसके शरीर को अपना घर बनालेते हैं, मोक्षलक्ष्मी हथेली में रखीहुई वस्तुके समान हो जाती है । वह पुरुष संसारको मुखपूर्वक तिरता है, तथा द्धिया उसके पास बनी रहती हैं ॥१०॥
जिनपूजा का महात्म्यनातङ्कोऽस्य कदापि याति सदनं भूपस्य चाण्डालव
दारिद्रयं बहुदरतस्तिमिरवदृष्ट्वा रविं नश्यति । एनं प्रोज्झति दुर्गतिश्च कुदशा दुष्टेव स्वीयं पति, यः सर्वार्पणरूपपूजन विधि भावाद्विधत्ते जिने ॥११॥
जो मनुष्य सब वस्तुओं का अर्पण करके जिनेन्द्र भगवान् की पूजा भाव से करते हैं, उन के घर में कभी रोग संताप प्रवेश नहीं करता है; जैसे राजा के घर में चाण्डाल प्रवेश नहीं कर पाता है ।
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नौतिदीपिका
जिसतरह सूर्य को देखकर अन्धकार मिट जाता है, इसी तरह भगवान् की पूजा करने वाले का दारिद्रय बहुत दूर भाग जाता है । जैसे दुष्ट स्त्री अपने पति को छोड़ देती है, इसी प्रकार दुर्गति और कुदशा जिन पूजक पुरुष को त्याग देती है ॥११॥ स्नानं भावजलैर्विलेपनमथो तद्वोधसच्चन्दनैः,
पुष्पैः शुद्धमनोमयैश्च सततं ध्यानेन धूपं तथा । दीपं ज्ञानमयं शमाज्यनिभृतं कृत्वा जिनस्यार्चनां, ये कुर्वन्ति निरञ्जनस्य नितरां धन्या मतास्ते जनाः
॥१२॥ शुद्धभावरूप जल से स्नानकर ज्ञानरूप उत्तम चन्दन का लेप करे । पवित्र मानसिक विचाररूप पुष्प चढ़ाकर ध्यान रूप धूप खेवे, तथा शान्ति रूप घृत से भरा ज्ञानमय दीपक जलावे । इसप्रकार जो मनुष्य कर्मकलङ्करहित- निरञ्जन जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करते हैं, उनको धन्य है ॥१२॥
चार श्लोकों द्वारा गुरुभक्ति का वर्णन करते हैं.सन्मार्ग परिवर्तते स्वयमथाऽन्यान्वतयत्यस्पृहः
सद्बोधेन भवाम्बुधिं तरति योऽन्यांस्तारयत्यादरात् । शान्तः सत्यशुचिर्दयालुरभयो यः सद्गुणैर्मण्डितः ।
सेव्यः स्वीयहितैषिणा गुरुवरः संसारसन्तारकः ॥१३॥ - जो स्वयं मत्यमार्ग पर चलते हैं, और निः स्वार्थ बुद्धि से दू
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सठियाग्रन्थमाला
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ܐ ܀ (
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सरों को भी चलाते हैं । सम्यग्ज्ञान द्वारा स्वयं संसारसमुद्र से पार होते हैं, और दूसरों को भी अतिप्रेम से पार करते हैं। जो शांतचित्त निर्लोभी दयालु निर्भीक तथा उत्तमगुणों से भूषित हैं, वे ही संसार से पार करने वाले सद्गुरु हैं। आत्महितेच्छुओं को ऐसे गुरुओं की सेवा करनी चाहिये ॥ १३ ॥
सर्वो नाशयते कुबुद्धिमचलां शास्त्राणि संश्रावय-न्भूयः सद्गतिदुर्गती शुभमनाः संदर्शयत्यादृतः । कृत्याकृत्यविभेदकृच्छिवपथं स्पष्टुं व्यनक्ति स्वयं, संसाराम्बुधिपोत एव स गुरुर्नान्योऽस्ति कश्चित्ततः
।। १४ ।।
गुरु शास्त्र सुनाकर आत्मा के सुदृढ़ मिथ्याज्ञान को दूर करते हैं। प्रेमपूर्वक शुद्धहृदय से सद्गति और दुर्गति के स्वरूप को दिखाते हैं । कर्त्तव्य तथा अकर्त्तव्य का भेद दिखाकर मांक्षमार्ग का स्पष्ट व्यारव्यान करते हैं। ऐसे ही गुरु संसार समुद्र से पारकरने के लिए जहाज के समान हैं, दूसरे नहीं ॥ १४ ॥
मायायत्तहृदः कुबुद्धिकुटिलव्यापार पूर्णादरा दारापत्यधनादिमुग्धमनसः संसारिणोऽसज्जनाः । दुर्वारे नरकान्धकूपकुहरे पापैः पतन्त्यंजसा, तानुद्धर्तुमलं न कोऽपि चतुरः शान्तं विना सद्गुरुम् | १५ |
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नीतिदीपिका
मायाचारी दुर्बुद्धि बुरे कामों में तत्पर, स्त्री पुत्र धनादिक में अत्यन्त आमुक्त दुर्जन मनुष्य, पाप उपार्जन करके नरकरूप भयानक अन्धे कुए में अवश्य पतन करते हैं। उनका उद्धार करने के लिए शान्तस्वभावी सद्गुरु के सिवा दूसरा कोई समर्थ नहीं है ॥१५॥
___ गुरु की आज्ञा का महात्म्य : किं त्यागेन कपायितेन सततं ध्यानेन किं धर्मतः, किं वा भावनया तयाऽक्षदमनैः सत्सङ्गमैः किं फलम्।
शुद्धं शासनमन्तरा वरगुरोः संसारनिर्णाशकं, कारुण्यामृतपूरपूरितहृदः सर्वार्थसंदर्शिनः ॥ १६ ॥
जिसका हृदय करुणा रूपी अमृत से परिपूरित है, और जो सम्पूर्ण जीवों को हितकारी उपदेश देते हैं, ऐसे सुगुरु की आज्ञा का पालन करने से संसार का नाश होता है । गुरु की आज्ञा का पालन किये विना क्रोधादि कषाय का त्याग करना, निरन्तर ध्यान भग्ना, धर्म का पालन करना, शुभ भावना भाना, इन्द्रियों का दमन करना, तथा सत्पुरुषों की सङ्गति करना सब निष्फल है ॥ १६ ॥
_जिनागम की महिमासत्यासत्यविचारणां शुभतरां कत्तु समर्था न ते, तत्त्वातत्त्वपृथकृति गुणवती ते नो विधातुं क्षमाः।
कार्याकार्यगुणागुणं स्वमनला जानन्ति नो ते जना ये युत्यङ्कितवीतरागवचनं शृण्वन्ति नोश्रद्धया ॥१७॥
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सेठियामन्यमाला
जो मनुष्य युक्तिसिद्ध वीतराग के वचनों को श्रद्धापूर्वक नहीं सुनते हैं, वे सत्यासत्य का निर्णय नहीं कर सकते । उन में तत्त्व अतत्व का निर्णय करने की शक्ति नहीं रहती, तथा कार्य अकार्य
और गुण औगुण को नहीं पहचान पाते हैं ॥ १७ ॥ तावत्संमृतिजं भयं भवभृतां तावन्मनोमोहकत्तावद्वंदपराभवोऽतिबलवांस्तावत्कषायोगमः। तावदुर्गतिगामिता जनिजुषां तावत्प्रपञ्चव्यथा, यावज्जैनमते निरञ्जनपदे लग्नं न चित्तं मुदा ॥ १८॥
जब तक परमपुनीत जैनधर्म में जीवों का हार्दिक प्रेम नहीं होता है, तब तक ही संसार का भय रहता है. तब तक ही तीव्र कषाय का उदय कलह और अपमान होता है, और तब तक ही कुगति में गमन तथा संसार सम्बन्धी पीड़ा होती है ॥१८॥ खद्योते खगधीमनोहरमणेान्तिश्च काचेऽमले, मुक्ताहारमतिर्भुजङ्गमवरे फेनेषु शय्यामतिः । शत्रौ मित्रमतिः सुहृथरिमतिः क्ष्वेडे च पीयूषधीर्येषां जैनमतं विहाय कुमतान्यालम्पते मानसम्॥१६॥
जिनका चित्त जैनमत को छोड़कर अन्य कुमतों में प्रवृत्त होता है ,उनको जुग्न में सूर्य की भ्रान्ति होती है । निर्मल काच में मनोहर मणि का प्रतिभास होता है । साँप में मुक्ताहार का भ्रम होता है । फेन में शय्या का भास होता है । तथा शत्रु में मित्रबुद्धि
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नीतिदीपिका
और मित्र में शत्रुबुद्धि, एवं विष में अमृत की भ्रान्ति होती है । मर्थात् उनको सब उलटा ही प्रतिभास होता है ॥१६॥ सबोधामृतनिझराय विमलज्ञानप्रदीपाङ्करै
नष्टाज्ञानमहान्धकारततिने कल्याणसम्पादिने । दुष्कौघमहाविषद्रुमवनच्छेदे कुठाराय तच्छ्रीमज्जैनमताय दुष्टजयिने नित्याय नित्यं नमः॥ ___ सम्यग्ज्ञानरूप अमृत के मरने के समान,निर्मल ज्ञान रूप दीपक की किरणों से महान् अज्ञानान्धकार को नाश करने वाले, कल्याण के कर्ता, तथा दुष्कर्मों के समूहरूप विषवृक्षों के वन को काटने के लिए कुठार के समान, एवं कुवादियों को जीतनेवाले सनातन श्रीमज्जैनधर्म को मैं सदा नमस्कार करता हूं ॥२०॥ .
संघ की महिमामेरू रसचयस्य शुद्धगमनं तारागणानां सतां, नाकः कल्पमहीरुहां वरसरः श्वेतच्छदानां ततेः। अम्भोधिः पयसां विधुश्च महसां स्थानं गुणानामसावित्यालोच्य विधीयतां भगवतः संघस्य सेवाविधिः
॥२१॥ जैसे रत्नों का उत्पत्तिस्थान मेरु पर्वत, तारागण का भ्रमणस्थान आकाश, कल्पवृक्षों की निवासभूमि स्वर्ग, कमलपुष्पों का उत्पत्तिस्थान सरोवर, जल का आधार समुद्र तथा किरणों का आश्रय चन्द्रमा है, इसी तरह समस्त गुणों का आश्रय चतुर्विध संघ
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सठियाप्रन्थमाला
(मुनि आर्यिका श्रावक श्राविका ) है । ऐसा विचार कर जिनेन्द्र भगवान् के उक्त चतुर्विध संघ की सेवा-भक्ति करनी चाहिये॥२१॥
संघः कल्पतरुः सदैव भजनात् संघः स चिन्तामणिः, स्वेष्टं दुर्लभमप्युपार्जयति यत्सेवावशात्सजनः । संघोऽसौ बलिदुष्टकर्मदलने दक्षः पचिर्तुःखभिसंघो जैनमते सदा विजयते दारिद्रयदावानलः ॥२२॥
सदा सेवन किया गया यह संघ, कल्पवृक्ष और चिन्तामणिरत्न के समान मनोवांछित पदार्थ को देनेवाला है । इसकी संवा करके सज्जन पुरुष अत्यन्त दुर्लभ इष्टवस्तु को पाते हैं। यह संघ प्रबल दुष्टकर्मों का नाश करने में प्रवीण है। तथा दुःखों का नाश करने के लिए वज्र के समान, और दारिद्रय को जलाने के लिए दावानल के समान है। इस प्रकार उक्तगुणों से भूषित यह चतुर्विध संघ जैनमत में सदा जयवंत रहता है ॥२२॥ धर्मोऽसौ सुरपादपस्सुमुनयः शाखाश्चरित्रोत्तमाः,
पत्रौधो मुनियोधवाक्यनिचयः पुष्पं तपः शोभनम् । छाया जीवदया च मूलममल: संघस्तु रक्ष्यो यतो. मूले नाशमुपागतेदलशिखापुष्पोद्गमो नो भवेत्॥२३॥
धर्म कल्पवृक्ष के समान चिन्तित पदार्थ को देने वाला है। चारित्र पालने वाले तत्त्वज्ञानी मुनि इस धर्मकल्पवृक्ष की शाखा हैं। मुनीश्वरों के हितोपदेश इसके पत्ते हैं। पवित्र तपस्या पुष्प तथा
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नीतिदीपिका
छह काय के जीवों की दया इसकी छाया है, और निर्दोष संघ मूलजड़ है । वृक्ष की जड़ नष्ट होजाने पर पत्ते फूल शाखा आदि की उत्पत्ति नहीं हो सकती है, इस लिए धर्म कल्पवृक्ष को सदा हरा भरा रखने के लिए संव की पूरी तरह रक्षा करनी चाहिये ॥२३॥ मुक्ता रत्नवरैर्विभाति बहुभी रत्नाकरो वीचिभि
नागः सन्मणिभिः सती स्वपतिनाऽहश्चित्रभानोः करैः। द्यौर्देवैः क्षणदेन्दुना सुयशसा ते सद्गुगा देहिनां, तत्सङ्घमणिविभाति विमलो धर्मेण सत्यात्मना ॥२४॥
जैसे सुन्दर सुन्दर रत्नों से मोती, बहुत सी लहरों से समुद्र, श्रेष्ठ मणियों से नाग, अपने पति से सती-पतिव्रता स्त्री, सूर्य की किरणों से दिवस तथा देवों से स्वर्ग, और चन्द्रमा से रात्रि, एवं मुयश स प्राणियों के गुण शोभा पाते हैं । इसी प्रकार सत्यधर्म से निर्मल संघ रूप मणि शोभा पाती है ॥२४॥
अहिंसा- दया की महिमासंसाराम्बुधिनौश्च दुष्कृतरजःसन्नाशवात्या श्रियां, दृती मुक्तिसखा सुबुद्धिसहजा दुःखाग्निमेघावली ।
निःश्रेणी त्रिदिवस्य सर्वसुखदा यात्यगला दुर्गते. जीवेषु क्रियतां दयाऽलमपरः कृत्यैरशेषैर्जनाः ॥२५॥
हे भव्यजीवो ! जीवदया संसाररूपी समुद्र को तिरने के लिये नाव के समान, और दुष्कर्म रूपी गज़ को उड़ाने के लिए
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ठिवाग्रन्थमाला
मांधी के समान है । यह लक्ष्मी की दूती और मुक्ति की सखी है। सुबुद्धि की बहिन और दुःखाग्नि को शान्त करने के लिए मेघ पङ्क्ति के समान है । स्वर्ग पर चढ़ने के लिए नि:सरणी और दुर्गतिका द्वार बन्द करने के लिए आगल के समान है। इसलिए हे सज्जनो ! सब से पहले जीवों पर अनुकम्पा करो। इस के विना सब धार्मिक क्रियाएँ निष्फल हैं ॥ २५ ॥
पाषाणस्तरतात्सरित्पतिजले काष्ठां प्रतीची श्रयेत्सप्तांशुः शिशिरोऽनलो भवतु वा मेरुश्चलत्वासनात्।
भूपीठं गगने प्रयातु दृषदि स्यादम्बुजानां जनिजन्तूनां हननं कदापि सुकृतं सूते न दुःखापहम् ॥२६॥ ___यदि पाषाण समुद्र के जल पर तैरने लगे, सूर्य पश्चिम दिशा में उदय होने लगे , अग्नि शीतल हो जावे , मेरुपर्वत अपने स्थान को छोड़ दे , पृथ्वीतल आकाश में चला जावे , पत्थर पर कमल उत्पन्न होने लगें, इत्यादि असंभव बातें भी कदाचित् संभव हो जायँ, तौ भी हिंसा से कभी दुःख को नाश करनेवाला पुण्यकर्म उत्पन्न नहीं हो सकता ॥२६॥ कैवल्योदयकारिणी भबवतां संतापसंहारिणी,
सद्धृत्पद्मविहारिणी कृतिहरी दीनात्मनां देहिनाम् । सबोधामृतधारिणी क्षितितले नृणां मनोहारिणी, जीयाज्जीवदया सतांसुखकरीसर्वार्थमंदायिनी ॥२७॥
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नीतिदीपिका
जीवदया केवलज्ञान को उत्पन्न करने वाली तथा संसारीजिवों के संताप को दूर करनेवाली है । शुद्धहृदयरूपी कमल में विहारकरनेवाली तथा दीन प्राणियों के कर्म का क्षय करनेवाली है । पृथिवी पर सम्यग्ज्ञान रूपी अमृत की वर्षा करनेवाली, तथा सज्जनों को मुख देनेवाली और समस्त इष्ट प्रयोजन को सिद्ध करनेवाली है । इसप्रकार मन को प्रसन्न करने वाली दया संसार में चिरकाल तक जीवित रहे ॥२७॥ अभ्यस्ता निखिलागमा बहुतपः क्लेशेन सम्पादित,
दत्तं दानमनर्घवस्तुबहुलं शश्वत्सुपात्रे मुदा । भक्तिर्या स्वगुरौ जिने बहु दृढं संसाधिता यत्नतो, हिंसां चेच्छ्रयतेतदाऽखिलमिदं नृणां भवेन्निष्फलम् __ जिसने सम्पूर्ण आगम का अभ्यास कर लिया,तथा अनेक कष्ट सहकर बहुतेरी तपस्या की। बड़ी उमंग से सदा उत्तम पात्र को अमूल्य मुन्दर पदार्थों का दान दिया, तथा वीतरागदेव और परिग्रहरहित गुरु की बड़े परिश्रम से पूर्ण सेवा-भक्ति भी की; यदि वह मनुष्य हिंसा का आचरण करे, तो उसके उक्त सब शुभकार्य निष्फल हो जाते हैं ॥२८॥ देवः पूजितमृद्धिकृत्सुजनतासजीवनं सन्मतं,
मुक्तेः केलिवनं प्रभावभवनं श्रेयस्करं पावनम् । कीर्तेः साधनमाधिभिच्छुभधन विश्रम्भसम्पादकं,
सत्सन्तोषकर मदा विजयते लोकेऽत्र सत्यं वचः।।
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सेठियाप्रन्थमाला
__सत्य वचन बोलने वालेकी देव पूजा करते हैं, तथा उसे अनेक ऋद्धियां प्राप्त होती हैं । सत्य वचन से सज्जनता प्रकट होती है। यह सत्य पवित्र है, तथा मुक्तिरूपी स्त्री के क्रीड़ा करने का उद्यान है । प्रभुता तथा कल्याण को उत्पन्न करनेवाला है। कीर्ति का विस्तार करनेवाला तथा मानसिक पीड़ा का नाश करनेवाला है। यह सत्यवचन संसार में उतम धन है, तथा विश्वास को उत्पन्न करनेवाला है । ऐसा सत्य वचन संसार में सदा विजय को प्राप्त हो ॥२६॥ धत्तेऽहीनपतिस्तरुबहुफलं सत्येन भूमिः स्थिरा
सत्यासिन्धुरपांपतिन हि कदाप्यत्येति वेलामसौ । सत्यान्मेरुमहीधरः स्थिरतरः स्तम्भो दरीदृश्यते, सेव्यं सत्यवचस्ततोऽखिलजनैर्यत्तेन लोकस्थितिः ।। ___ सत्य के द्वारा वृक्ष बड़े बड़े सांपों को आश्रय देता है और बहुत फलोंको धारण करता है । सत्य से समुद्र मर्यादा का कभी उल्लंघन नहीं करता है। सत्य से ही मेरु पर्वत हमेशा स्थिर रहता है। समस्त संसार सत्य के आश्रित है । इसलिए सत्य वचन की उपासना करनी चाहिए ॥३०॥ सम्पत्नुद्रसरिनिदाघदिनकृत्तेजो विपदल्लरी
मेघाम्बूज्ज्वलसद्यशःसुविपिने दावानलं दुःसहम । श्रेयाश्रीसुलतागजं भयकरं पापर्द्धिमूलं परं, मिथ्यावाक्यमिदं वदन्ति च कथं ये पुण्यवन्तो जनाः
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यह असत्य वचन , सम्पत्तिरूनी : कोटी नदी को सुखाने को लिये ग्रीष्म ऋतु के प्रचण्ड सूर्य के तेज के समागविपतिरूपी लना को सींचने के लिए मेघ के जल के समान है, उज्ज्वल मु. यश रूपी हरे भरे वन को भस्म करने के लिए भयङ्कर दावाग्नि के . समान है, कल्याणलक्ष्मी कपी लता का नाश करने के लिए म.. दोन्मत्त हस्ती के समान है, और पाप का मूल कारण है। ऐसे असत्य वचन को पुण्यात्मा पुरुष, कस बोल्न सकते हैं ? ॥३१॥ तस्याम्भो ज्वलनः स्थलं जलनिधिर्मित्रं रिपु : किङ्करा:
देवाः पूर्विपिनं गृहं गिरिपतिर्माल्यं फणी केशरी । सारङ्गोऽस्त्रमहा दम्बुजदले कोष्टा मृगारिFि FATE पीय विषम सम वदतिया सत्य वच पावनम् ३२॥
AFN STARTEN बड़े आश्चर्य की बात है कि जो पवित्र सत्यवचन बोलता है,
IKELKKAUTTAISRIFTIETSTA उसके अग्नि जलसमान हो जाता है, समुद्र स्थलसमान, तथा शत्रु मित्रसमान हो जाता है । देव सवक के समान, तथा वन नगर के समान हो जाता है । पर्वन व क ममान, तथा सर्प माला के समान हो जाता है । मिह मृग के समानः तथा घाण आदि अस्त्र कमल के पत्ते समान हो जाते हैं। व्याघ्र ग्वग्गोश का समान, तथा विष अमृत के समान हो जाता है ॥३२॥
..अचौर्यवती महिमा--- सिद्विस्तं वृणुते सुकीर्तिरमला तस्मै ददात्यादरं, तंसम्पत्सकला ममेति न कदाऽप्युा भवार्तिश्च तम्।
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सेठियाप्रन्थमाला
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(१८)
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दारिद्र्यं न विशेत्तदीयसदनं दोषाश्च दूरे ततः, कुर्युः सख्यमनेन सज्जनगगणा यः स्तैन्यहीनो जनः ॥ ३३ ॥
जो मनुष्य चोरी नहीं करता है, उसको सिद्धि अपना वर बना लेती है । निर्मल कीर्ति उससे प्रेम करती है । सम्पूर्ण सम्पत्ति उसके पास आजाती है । चोरी नहीं करनेवाले को पृथिवी पर कभी कष्ट नहीं होता । उसके घर में दरिद्रता प्रवेश नहीं कर सकती, तथा दोष उससे सदा दूर रहते हैं, इसलिए सज्जन पुरुषों को चोरी नहीं करने वाले के साथ मित्रता करनी चाहिए ॥ ३३ ॥ नादत्ते सुकृती ह्यदत्तमिह यस्तं श्रीः श्रयत्यम्बुजं, हंसीवासितमम्बुदं तडिदिव श्लाघा तमालिङ्गति । सूर्याद्रा त्रिरिवातिदूरमपयात्यहाव्रजोऽस्माज्जनाद्विद्यासक्तमिवैति तं गुणगणा ये सर्वसौभाग्यदाः ||३४||
जो पुण्यात्मा मनुष्य स्वामी की आज्ञा के बिना दूसरे की वस्तु नहीं लेता है, लक्ष्नी उसकी इस प्रकार सेवा करती है, जैसे हंसनी कमल की सेवा करती है । कीर्तिउसका इस प्रकार अलिङ्गन करती है, जैसे बिजली काले मेघ का आलिङ्गन करती है। चोरी नहीं करने वाले के पाप इस प्रकार दूर होजाते हैं, जैसे सूर्य का उदय होने से रात्रि दूर होजाती है। जितने सौभाग्यादि उत्तम उत्तम गुण हैं, वे सब चोरी के त्याग करने वाले को इस तरह प्राप्त होजाते हैं, जैसे विद्या परिश्रमी पुरुष को प्राप्त होती है ॥ ३४ ॥
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नीतिदीपिका
चोरी से हानि--- कीर्तिः कालमुपैति कल्मषततिस्फूर्ति परामृच्छति, लज्जा लीनतरा भक्त्यपि सुख लीनं व्यथा बद्धते । क्रूरा पापमतिर्भवत्यनितरां भीनिभवेत्सर्वतः, स्तेये बुद्धिमतां महत्यपि लघौ कि किन दुःख भवेत् ॥
चोरी करने वाले की काति नष्ट होजाता है ! पापपुञ्ज अ. विक बढ़ जाता है, लज्जा विलीन हो जाती है । मुग्व का नाश होता है और दुःख बढ़ता है । कर पापबुद्धि पैदा होती है, तथा चारों ओर से भय प्राप्त होता है , अत: चोरी छोटी हो या बढ़ी बुद्धिमानो की उससे कौन कौनसा दुःश्व उत्पन्न नहीं होता है ॥३५॥ नित्यं दुर्गतिमागविस्तृतिपरं मद्दषणं भूतिभि
पुण्याम्भोरहचन्द्रिकाविलगने पापवर्षादकम् । मानग्लानिकरं वृषद्रुदहनं दैन्यप्रदं दुग्वस्तैन्यं मविपत्तिद भयकर हेयं हितेच्छावता॥३६।।
चारी सदा दुर्गति के मार्ग को बढ़ाकर दोपों को उत्पन्न करती है। ऐश्वर्ष का नाश का पुण्यरूपी कनन का संकोच करने को चन्द्रमा की चांदनी के समान है, नया पाप रूपी वृक्ष का हग भग रखने के लिए वर्णा के जल के समान है । सन्मान को मलीन कर धर्मरूपी वृक्ष को जलाने वाली है। दीनता तथा दुग्न का उत्पन्न कर सम्पूर्ण विपत्तियों की जननी है ! महाकावन वाले को ऐसी भयङ्कर बोरी का त्याग करना नायि॥३६॥
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सेठियाग्रन्थमाला
शील का भङ्ग करने से हानि-- लोके तेम मिपातिताऽपि विमला कीर्तिपताकी निजा
दत्ता मुक्तिपुरी दृढा कुमतिना गाउँ कपाटागला । दावाग्निी रचिलोऽनिगौरवपदे स्वीये गुणारामके, स्वीय शीलमनयमेव सुखदं येन प्रलुप्तं मदात् ॥३७ ... जिसने काममंद में आकर सम्पूर्ण मुख को देनेवाले अमूल्य शीलवत का भङ्ग कर दिया, उस दबुद्धि ने संसार में अपनी निर्मल कीतिरूपी. बँजा नीचे गीग दी । मुक्तिरूपी नगर के दवजि में दृढ़ आगल लगा दो, तथा आत्मगौग्य को बढ़ानेवाले गुणरूपी बगीचे में दावाग्नि लगा दी है ॥३७॥
__ ब्रह्मचर्य का पालन करने में लाभ तेषां व्याधिशातं. प्रयाति विलयं लापत्र नमति,
श्रेयस्सन्ततया भवति सततंमान्निध्यागम: स्युःसुराः ।। कीतिमण्डति,मएडलं दशदिशां धो धरायां सदा वृद्धिं गच्छति याति पापपटली ये शीलमभूषिताः ॥ ____ जिनका आत्मा शील म भूधित है, उनक संकड़ों गंग दूर हो जाते हैं । शरीर मन और वचन सहानवाले दुःख अदृश्य हो. जाते हैं । ब्रह्मचर्य पालनेवालों का जीवन सुख से बीतता है। उनकी देव सदा सवा करते हैं। उनकी काति दशो. दिशाओं में फैलता है । उनका धर्म हमेशा बढ़ता रहता है, तथा पापपुञ्जवि लीन हो जाता है ।। ३८ ॥
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(२)
नीतिदीपिक
नूनं नाशयते कलकनिकरं पापाडुरं कृन्तति....
सत्कृत्योत्सवमाचिनाति नितर्रा ख्याति तनाति ध्रुवम्। हत्यापत्तिविषादविनवितति दत्त शुभां सम्पद,
ददाति सुखद सब्रह्मचयं धृतम् ॥३२।।
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...उत्तमर्गति से पालन किया गया शाल व्रत कलङ्कसमूह का नाया करता है। पापके अंकुर का छेदन करता है | आदर सत्कार को बढ़ाता है । संमार में प्रतिष्ठा उत्पन्न करता है । आपत्ति दुःख और दिन का घात करता है । यह ब्रह्मचर्यव्रत उत्तम सम्पत्ति को देता है, तथा क्रम से स्वर्ग और मोक्ष के मुख.का अनुभव कराता है ॥३६॥
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अग्निस्तोयति कुण्डली सजति वा व्याघ्रः कुरङ्गायते, वज्र पत्रदलायते सुरगिरिः पाषाणति श्वेडकः । पीयूषत्यनिशं हिनत्यरिगणा व्याधिविनादायते विघ्नोघाऽपि महायते हि महतां शीलप्रभावाद्ध्वम् ।।
समापुसको का शान के प्रभाव सामि जल के समानाजी नन तथा मर्म पुष्पमाला समान बन जाता है । सिह मृग के समान अचानाकारी, तथा वन कमल के पत्ते के समान कोमल हो जाना है। भुमेर मत पाषाण के समान मुगमः तथा विष अमृत के समान मुग्व देनेवला हो जाता है । शत्र सदा के लिए मित्र बन जाता है, तथा व्याधि नुम्वरूप और विघ्न उत्सबारूप होजाते हैं ॥ ४० ॥
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सेठियाग्रन्थमाला
(२२)
परिग्रह से हानिअंहः सञ्जनयन्कृपाकमलिनी क्लिश्नन्समुन्मूलयन् ,
धर्मद्रु खलु लोभसागरमहा संवईयन्नुद्रुजन् । मर्यादातटमादिशन् शुभमनोहंसप्रवाम परं किं वृद्धो न सदा परिग्रहसरित्पूरः परं कष्टकृत्॥४१॥
परिग्रह रूपी नदी का पूर पाप को उत्पन्न करता है । कृपारूपी कमलिनी का नाश करता हुआ धर्मरूपी वृक्ष को मूल से उ. खाड़ फेंकता है । लाभापी समुद्र को बढ़ाता हुआ, मर्यादारूपी तट को तोड देता है,तथा शुभविचार मापी हंस का दूसरे देशमें भगा देता है । जब साधारण परिग्रहरूपी नदी का प्रवाह इतने कष्टों को उत्पन्न करता है, तब वृद्धि को प्राप्त हुआ परिग्रह कौन से बड़े कष्टको नहीं देता है?॥ ४१ ॥
विन्ध्यः क्लेशगजे दवाग्निरनिशं सत्कृत्यरूपे वने, वात्या कोमलपङ्कजे पितृवनं यत्क्रोधवेतालके ।
द्वेषागामिदं प्रदोषबहुलं सम्पद्विनाशोन्मुखः सन्नीतिद्रुमवल्लरीमदगजो ह्यानुरागः परः ॥४२॥
द्रव्यकी अधिक लालसा क्लेशरूपी हाथी के निवास के लिए विन्ध्याचल पर्वत के समान तथा उत्तम कार्यरूपी वन को जलाने के लिए दावाग्नि के समान है। कोमल परिणाम रूपी कगन को उखाड़ने के लिए आंधी के समान तथा क्रोध रूपी वेताल के नृत्य करने केलिए श्मशान के समान है। द्रुषादि दोषों का घर तथा पूर्वप्राप्त हुई सम्पत्ति का
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(२३)
नीतिदीपिका
नाश करनेवाली तथा उत्तम नीति रूपी लता का मर्दन करनेकेलिए मदोन्मत्त हाथी के समान है ॥ ४२ ॥ क्रूरारिः प्रशमस्य धैर्यहितहृन्मोहस्यभूमिः परा
पापानां परिचायकः पदमदोऽनपदां शाश्वतम् । लीलगद्यानमतीव शोभितमसद्धयानस्य हेतुः कलेहयोऽशुद्धपरिग्रहो बुधजनैः शोकस्य मूलं महत् ॥४३॥
यह अपवित्र परिग्रह शान्ति का पूरा दुश्मन, तथा धीरज और हित को हरनेवाला है । मोहकी निवासभूमि तथा पापों से प्रीति उत्पन्न करनेवाला है। नित्य ही अनर्थ और आपदाओं का स्थान तथा अपध्यान के क्रीड़ा करने का सुललित उद्यान है । झगड़े की जड़ तया शोक का मूलकारण है । बुद्धिमानों को ऐसे दुःखदायी परिग्रह का सर्वथा त्याग करना चाहिए । अथवा परिग्रह का परिमाण कर ममत्वभाव वटाना चाहिए ॥ ४३ ॥ नित्यं मत्तवदाचरत्यतिरयादाविष्टवज्जायते,
लोभान्धो भवतिप्रकृष्टतरलो मूढो विचारे वरे। क्रूरः पापमतिः परापकरणे नित्योद्यतो निन्दकः, तुद्रो द्रव्यपरिग्रहेण सततं धन्योऽप्यधन्यो नरः॥४४॥
परिग्रह के कारण मनुष्य हमेशा पागल की तरह आचरण करता है तथा भूत से विरे हुए मनुष्य की भांति बहुत जल्दी बेसुध होजाता है । लोभ से अन्धा हुआ मनुष्य चंचल प्रकृति वाला होकर सदा उत्तम विचारों से शून्य रहता है । लोभी का स्वभाव क्रूर हो
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सेठियाग्रंथमाला
जाता है तथा उसकी बुद्धि पाप कार्यों में ही प्रवृत्त होती है। लोभी.. मनुष्य सदा दूसरे का बुरा करने में तथा निन्दा करने में तत्पर रहता है । लालच के कारण मनुष्य बद्ध विचारवाला तथा गायशाली क्ति भी भाग्य हीन हो जाता है ।।,१.४.
यो, नित्य कटुतापको विकृतिकृत्रासादो नाशक
ब्रह्मेनित्यसहोदरः शमरिपुः सत्कीर्त्तिवल्लीगजः । यो मूलं विषपादपस्य विमलज्ञानाम्बुतेजापतिः, क्रोधोऽयं कुशलेच्छुभिः सकुशलैस्त्याज्यो विपत्कार
णम् ॥५४॥ क्रोध के.वशीभूत हुआ मनुष्य नीच पुरुषों के बोलने योग्य नि: न्य वचन बोलता है । क्रोध शरीर और आत्मा में विकार उत्पन्न क : रने वाला है, तथा चित्त में उद्वेग उत्पन्न करने वाला है । क्रोध के द्वारा प्राणी अपना और पाभ प्रातकाले हैं। क्रोध अग्नि त समान प्रतिमा को जलाने वाला मा शान्ति गुणगा, या शोचीति रूपी लेता का नाश के लिए हाथी के समान है। यह को वृक्ष की जड़ है ! निर्मक सन्म प्रवाल को मधवने के लिएासूर्य के में मान है, और विपत्तियों का मूल कारण है. | ऐसा समझकर आत्महितेच्छु पुरुषों को चाहिए कि इस क्रोध शत्रु का सर्वथा त्याग क' ग्दें ॥४५॥
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(२५)
नीतिदी
क्रोधः कीर्त्तिहरो जनेषु सततं प्रीतिप्रतिष्ठाज्वरः, क्रोधः कष्टकुकर्मबीजवपनात्संसार संबर्द्धकः । क्रोधः शान्तिविघातकृन्निजपरज्ञानोद्विघाताश्रय - स्तस्मादात्महितैषिभिर्बुधजनैः क्रोधः स हेयोऽनिशम् ॥
•
क्रोध सुयश का नाश करने वाला तथा मनुष्यों में फैली हुई प्रतिष्ठा और प्रीति को कुश करने में बुखार के समान है। क्रोध दुःखदायी दुष्कमों का बीज बोकर संसार को बढ़ाने वाला है। क्रोध शान्ति का भङ्ग करने वाला तथा स्व और पर के भेद ज्ञान का विधात करने वाला है । इस लिए आत्मा का भला चाहने वाले बुद्धिमानों को इसकोध का विलकुल त्याग कर देना चाहिए ॥ ४६ ॥ तापं संतनुते विवेकविनयौ नित्यं भिनत्ति स्वयं, सौहार्द सततं नित्ति कुरुतेऽत्युद्वेगितामादरात्। तेऽवद्यवचः करोति कलहं भिन्ते हि पुण्योदयं, दत्ते दुर्गतिदुर्मती हि नियतं रोषः सदोषः सदा ॥ ४७ ॥
I
क्रोध संताप को बढ़ाता है । विवेक और विनय को दूर कता है । को बहुत काल की गाड़ी मित्रता को क्षण भर में नष्ट कर देता है । चित्त में निरन्तर उद्वेग बनाये रखता है । क्रोध पाप I जनक वचनों का उच्चारण कराता है । कलह उत्पन्न करता है। पुण्य का क्षय करता है । दुर्बुद्धि और दुर्गति को उत्पन्न करता है । अतएव यह रोष सर्वदा दोषों का जनक है । इसको छोड़ने से ही आत्मा का भला हैं ॥४७॥
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मठियाप्रंथमाला
(२६)
वृक्षं दाव इव द्रुतं दहति यो धर्म च नीति लतां,
दन्तीवेन्दुकलां च राहुरिव या स्वार्थ विहन्त्यम्बुदम् । वायुश्चेव विलासयत्यतितरां पापावली चापदं, कामं कर्मकषायदः समुचितः कत्तुं स कोपः कथम्॥४८॥
जैस दावाग्नि वृक्षको जलाती है, ऐसे ही क्रोध धर्म को जला देता है । जैसे हाथी लता का भङ्ग करता है, इसी प्रकार क्रोध नीति का भङ्ग करता है । जैसे राह चन्द्रमा को प्रस लेता है, इसी तरह क्रोध आत्महित को ग्रस लेता है। जैसे वायु मेघों को एकत्र करता है, इसी प्रकार क्रोध पापकर्मों और आपदाओं का संचय करता है। क्या ऐसे कर्म और कषाय को उत्पन्न करनेवाले क्रोध को आत्मा में स्थान देना चाहिये? ॥ ४८॥
मानप्रकरणयस्मादुद्भवति प्रदुस्तरतरा व्यापनदीनां ततियस्मिन् शिष्टमतं च नास्ति सुगुणग्रामस्य नामाप्यहो। यो नित्यं वहति प्रकोपदहनं यः कष्टवन्याकुलो, मानाद्रिं हर तंद्रुतं किल दुरारोहं सुवृत्तेः सदा ॥४६॥
जिस अहंकाररूपी पर्वत से अतिकष्ट से पार करने योग्य विपत्ति रूपी नदियाँ निकलती हैं । जिस मानरूपी पर्वत पर सजन पुरुषों के आदर करने योग्य उत्तम गुण रूपी गाँव का नाम तक नहीं है । जो नित्य क्रोधरूपी अग्नि को धारण करता है। जो दुःखपरूी वृक्षों से व्याप्त है, तथा जिस पर चढ़ना अति कठिन है।
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नीतिदीपिका
(२७)
सजन पुरुष विनय गुण और उत्तम कर्त्तव्य धारण कर इस अहंकार रूपी पर्वत से सदा दूर रहें ॥४६॥ भञ्जनीतिसुवीथिकां दृशमालानं विनिघ्नन्मदा
च्छुभ्रां सन्मतिनाडिकां विघटयन्दुर्वाग्रजः संकिरन् । नित्यं स्वागमवज्रमप्यगणयन्स्वैरं भ्रमन्भूतले, नानर्थ जनयत्यहो किमु जनो नागोमदान्धो यथा ॥५०॥
अभिमानरूप मदोन्मत्त हायी शान्तिरूप दृढ अालान-बन्धन स्थान को तोड़कर नीतिरूप मार्ग का भङ्ग करता हुआ. सम्यग्ज्ञानरूप सांकल को तोड़कर दुर्वचनरूप धूल को उड़ाता हुआ अपने मार्ग में रुकावट डालनेवाले वज्र की परवाह न कर सदा पृथ्वी पर भ्रमण करता हुआ कौन २ से अनर्थ उत्पन्न नहीं करता है ॥५०॥
औचित्यं विनिहन्ति मेघरचनां तीव्रो नभस्वानिव, प्रध्वंसं विनयं नयत्यहिरिव प्राणान्परप्राणिनाम् । कीर्ति नागपतियथा कमलिनीमुन्मूलयत्यासा, मानो नीच इवोपकारमनिशं हन्ति त्रिवर्ग नृणाम् ॥५॥
जैसे प्रचण्ड पवन मेव को छिन्न भिन्न कर देता है, वैसे ही अभिमान उचित आचरण को नष्ट कर देता है। जैसे सर्प जीवों के प्राणों को हर लेता है, वैसे ही अहंकार विनय को हर लेता है । जैसे हाथी कमलिनी को मूल सं उग्वाड़ देता है, वैस ही गर्व तत्काल कीर्ति को जड़ से उखाड़ देता है, जैसे नीच पुरुष उपकार का
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सेठिया प्रथमाला
विध्वंस कर देता है, वैसे ही अहंकार प्राणियों के त्रिवर्ग (धर्म अर्थ और काम) का विध्वंस कर देता है ॥ ५१ ॥ मानो दुःख निधिभवेद्भवभृतां मानं विपत्संश्रिता, मानेनैव भवन्ति मानरहिता मानाय देया क्षतिः । मानान्नास्ति परं यशोविहननं मानस्य दुःखं वशे माने मा कुरु गौरवं हतसुखे हे मान ! दूरं व्रज ॥ ५२॥
अभिमान दुःख का निधान है । विपत्तियाँ अभिमान के आश्रि त हैं। अभिमान से सम्मान का क्षय होता है, अभिमान क्षय करने योग्य हैं । अभिमान से अधिक कीर्त्ति का नाश करनेवाला दूसरा कोई नहीं है । मान के अधीन दुःख रहता है । सुखका नाश करनेवाले अहंकार में अपना गौरव मत समझो। हे अहंकार तू दूर रह ||५२||
२८)
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माया से हानिवन्ध्या या कुशलोद्गमेऽस्ति सततं सत्यार्क सन्ध्या च या, माला या कुगतिस्त्रियाः किल महामोहे भशालास्ति या । शान्त्यम्भोजवने हिमं कुयशसोया राजधानी मता, मायां तां परिमुञ्च दूरतरतो या दुःखदा सर्वदा ॥ ५३ ॥
जो माया पुण्य उत्पन्न करने में वन्ध्यास्त्री के समान है, अर्थात् कपट करने से कभी पुग्य उत्पन्न नहीं होता, केवल पाप ही उत्पन्न होता है। जो माया सत्यरूप सूर्य के छिपने पर होनेवाली सन्ध्या के समान है । जो माया कुगति रूप स्त्री की वरमाला
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मोतिदीपिका
(२६)
के समान है, अर्थात् जैसे स्वयंवर में कन्या वरमाला पहनाकर अपना पति स्वीकार करती है, इसी प्रकार दुर्गतिरूप स्त्री मायाचारी पुरुष को मायारूपी वरमाला पहनाकर अपना स्वामी बना लेती है । जो माया शान्तिरूप कमलके बन को जलाने के लिए बर्क के समान है, तथा अपयश की राजधानी है । इस प्रकार भनेक दुःग्व उत्पन्न करनेवाली माया को सदा दूर ही से त्याग देना चाहिए ॥५३॥ मायां ये परवञ्चनाय रचयन्त्यज्ञानतः सादरं,
मायाजैर्विविधैरुपायनिकरैर्नित्यं मनःकल्पितः । ते व्यामोहसखा विहाय सततं स्वर्गादिकं सत्सुखं, स्वात्मान परिवश्यन्ति सहसा स्वार्थानचेष्टा नराः ॥
जो मनुष्य अपने मन की कल्पनाओं से अनेक उपाय सोचकर अज्ञानवशा दूसरों को ठगते हैं , वे अज्ञानी अपनी आत्मा को स्वर्गादि के मुख से वञ्चित रखते हैं, तथा अपने स्वार्थ का प्रकस्मात् नाश कर बैठते हैं ॥५४॥ ये मायां दुरिताशया विद्धतेऽविश्वासभूमि परां,
स्वार्थना द्रविणाशया कुमतयो मोहाग्निदग्धा जनाः । ते पश्यन्ति तथा पतन्तमतुलं चानर्थसारं पुरः, सानन्दं प्रपिबन्पयो न लगुडं मत्ती विडालोयथा ।।
जो पापी धन के लोभ से अविश्वास उत्पन्न करने वाली माया-छल करते हैं, वे मोहरूपी अग्नि से जले हुए दुर्बुद्धि अपने स्वार्थ
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सेठियाप्रन्थमाला
(३०)
का नाश करते हैं । मायाचारी पुरुष कपट से होने वाले अतुल अनर्थ की परवाह नहीं करते हैं, जैसे बिलाव आनन्दपूर्वक दूध पीता है, लेकिन दूध पीने के कारण ऊपर से पड़ने वाले डंडे की परवाह नहीं करता है ॥ ५५ ॥ मायामत्र विधाय मुग्धजनतां ये वञ्चयन्ता जना
अज्ञानान्ध्यसमन्विताः खलु निजोत्कर्ष परं मन्यते। ते मोहावृतमानसाः कुमतयः पश्यन्ति नात्मच्युति, दीपे प्रज्वलिते पतन्ति सततं मत्ताः पतङ्गा यथा॥५६।।
जो अज्ञान से अन्धे हुए मनुश्य छल कपट कर दूसरे भोले जीवों को ठगते हैं, और इसी में अपनी उन्नति समझते हैं, उन दुर्बुद्धियों का चित्त मोह से ढका हुआ है, इसलिए वे अपनी होनेवाली हानि को नहीं देख सकते हैं, जैसे मोहित होकर दीपक में गिरते हुए पतङ्ग अपने होनेवाले नाश को नहीं समझते हैं ॥५६॥
लाभ से हानि यदुर्गामटवीं चरन्ति गहनं गच्छन्ति देशान्तरं,
गाहन्ते जलधिं गभीर मतुलक्लेशां कृषि कुर्वते । सेवन्ते कृपणं पति मर गादं दुष्कृत्यमातन्वते, कुर्वन्त्याचरणं विगह्यमनिशं लोभाभिभूता जनाः ॥५७॥ ___ लोभ से सताये गये (लोभी) मनुष्य भयानक वन में भ्रमण करते हैं । विकट देशान्तर में गमन करते हैं । गम्भीर समुद्र में प्रवेश करते हैं । अत्यन्त कष्ट देने वाली खेती करते हैं | कंजूस
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मीतिदीपिका
(३१)
स्वामी की सेवा करते हैं । मृत्यु देनेवाले बुरे कार्य करते हैं, नथा संसार में निन्दा फैलाने वाले आचरण करते हैं ॥५७ ॥ मत्कृत्याम्बुधिकुम्भजोऽयमरणिः क्रोधानलोत्पादने,
मूलं मोहविषाध्रिपस्य जलदः प्रच्छादने सन्ततम् । प्रोद्यत्तापनिधेः कलेश्च सदनं व्यापनदीसागरः, कामं कीर्तिलताकलापकलभोलोभः सदा त्यज्यताम् ।। ___ यह लोभ सत्काररूपी समुद्र को सोखने के लिए अगस्त्य ऋषि के समान, तथा क्रोधाग्नि को उत्पन्न करने के लिए अरणि काट के समान है । मोहरूप विषवृक्ष की जड़, तथा सदा उत्तम गुणों को ढकने के लिए मेघ के समान है। अनेक संताप और कलह का घर, विपत्तिरूपी नदियों को आश्रय देने के लिए समुद्र के समान, तथा कीर्ति रूपी लताओं को नष्ट भ्रष्ट करने के लिए हाथी के बच्चे के समान है । इस लोभ को सज्जन पुरुष त्याग दें ॥ ५८ ॥
लोभीज्ञानमहोदयाम्बुजविधुर्लोभो विवेकाम्बुदप्रोद्धान्तानिलसंहति : शुभमतिप्रोघल्लताकुन्जर । लोभ : सत्यसुवृत्तनाशनपटुर्लोभो विपजन्मभू, स्वर्गद्वार कपाट एष विबुधैस्त्याज्यो हिताकातिभिः॥
लोभ ज्ञान की उन्नतिरूप कमल को संकुचित करने के लिए चन्द्र समान है । विवेक-स्वपर का भेदज्ञानरूप मेघ को उडाने के लिए तेज आंधी के समान है। उत्तम मतिरूपी लताओं
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सैठियाप्रन्यमाला
(३२)
का भङ्ग करने के लिए. हाथी के समान है । यह लोभ सत्य और सच्चरित्र का नाश करने में प्रवीण विपत्ति को जन्म देने वाली पृथिवी तथा स्वर्ग का द्वार बन्द करने वाला किंवाड है , इस लिए आत्महितेच्छु बुद्धिमान् इस लोभ का बिल्कुल त्याग कर दें ॥५६॥
सन्तोष से लाभ-- जाता देवगवी सदा सुरतरुस्तेषां गृहे संस्थितश्चिन्तारतमुपागतं निजकरे सान्निध्यमातो निधिः । तबश्यं निखिलं जगच सुलभाः स्युर्मोक्षसत्सम्पदो, ये सन्तोषमनल्पदोषदहने मेघं सदा बिभ्रति ।। ६० ॥
सन्तोष महादोषरूप अग्नि को शान्त करने के लिए मेघ के समान है। इस को जो मनुष्य धारण कर लेते हैं, उन के घर में मानो कामधेनु और कल्पवृक्ष उत्पन्न हो जाते हैं । चिन्तामणि रत्न उन के हाथ में, तथा सम्पूर्ण धनभण्डार उन के समीप में आजाता है, और सम्पूर्ण संसार उन के वश में हो जाता है ॥ १० ॥
दुर्जनता की निन्दाक्षिप्तः पाणिरहेमुखे वरतरं कुण्डे ज्वलहिके,
यज्झम्पापतनं परं विरचितं द्रागेव मृत्युप्रदम् । निःक्षिप्तं गरलं वरं स्वजठरे यद्रोगसंशान्तये, लब्धव्यं न कदापि दुर्जनपदं श्रयापदं वाञ्छता ॥३१॥
जिसने दुर्जनपना धारण किया, उसने मानो साप के मुँह में हाथ देदिया, जलते हुए अग्निकुण्ड में छलांग मारली, रोग को शान्त
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नीतिदीपिका
(३३)
करने के लिए तत्काल मृत्यु देने वाले ऐसे उग्र जहर को अपने पेट में रख लिया है । कल्याण की इच्छा रखने वाले को दुर्जनता कभी न करनी चाहिए ॥६१॥ यत्कीर्ति प्रविनाशयत्यतितरां सूते विपद्धेदना
हन्ति स्वार्थमथो विवेकविनयौश्रेयःसुखं सन्मतिम् । तादृक्षं कुमतिर्जनो वहति यदौर्जन्यमात्मापहं, धान्ये तत्क्षतिदं करोति दहनं साध्येऽम्बुसंसेचनात् ॥
जो कीर्ति का बिल्कुल नाश कर देती है । विपत्तियों और वेदनाओं को उत्पन्न करती है । स्वार्थ का भङ्ग करती है । विवेक विनय कल्याण सुख और उत्तम बुद्धि का उच्छेद करती है । आत्मा का बात करने वाली ऐसी दुर्जनता को जो मनुष्य धारण करते हैं , वे मनुष्य जल सींचने से उत्पन्न होने वाले धान्य में उसको जलाने वाली अग्नि का प्रयोग करते हैं ॥६२॥ मौजन्यं भजतां वरं परिभवो दौर्जन्यदोषार्जिता रम्या नो सुखसम्पदः सुविभवा विद्युच्छटाचञ्चलाः। आयत्यात्महितं विभाति सहजं रम्यं कृशत्वं नृणां, नो देहे परिणामकालविरसा शोफोड़वा पीनता ॥
सज्जनता से यदि दरिद्रता बनी रहती हो तो भी सजनता ही धारण करनी श्रेष्ठ है । लेकिन दुर्जनता से मुख देनेवाली बिजली के चमत्कार के समान क्षणभङ्गरसम्पत्ति का उपार्जन करना ठीक
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मेठियाग्रन्थमाला
(३४)
नहीं । जैसे मनुष्यों का स्वाभाविक कुशपना ही मुन्दा और परिगणाम में मुग्व देने वाला होता है । किन्तु सूजन से उत्पन्न हुआ स्थूलपना न तो मुन्दर है और न एरिणाम में मुखदेने वाला ही होता है ॥ ६३ ॥ दोषं न प्रकटीकरोति सुतरां ब्रूते परेषां गुणं
मन्तोषं परितो दधाति महनीमन्यर्द्धिमालोक्य वा। शोकं यत्परपीड़या प्रकुरुते नात्मप्रशंमां कचिनीति नोज्झतिनो क्रुधं वितनुते मैष स्वभावः सताम् ।।
सजन दूमरों के दोष प्रकट नहीं करते, लेकिन गुणों को स्वयं प्रकट करते हैं। मत्पुरुष दूसरों की सम्पत्ति देखकर लोभ नहीं करते, किन्तु मन्ताप धारण करते हैं। उत्तम मनुष्य अन्य जीवों को पीड़ित देखकर दुःखी होते, आत्मप्रशंमा नहीं करते, तथा नीति का त्याग नहीं करते और न क्रोध ही करते हैं । ये सब स जनों के स्वाभाविक गुण हैं ॥ ६४ ॥
गुणवानों की सङ्गति से लाभधर्म निष्करणा यशांस्यविनयों द्रव्यं प्रमत्ता जनी, निवुद्धि कवितां तपःशमदद्याहीनोऽल्पवुद्धि : श्रुतम्। पालोक गतलोचनश्चलमना ध्यान सवाञ्छत्यसो, यः सङ्गं गुणिनां विहाय कुमतिःश्रेयासुखं लिप्सति ॥
जैसे निर्दयी धर्म की, अभिमानी यश की, आलमी धन की, निबुद्धि कविता की, तप शम दयाहीन और अल्पबुद्धि आगम ज्ञान की,
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नीतिदीपिका
अन्धा पदार्थ देखने की, चंचलचित्तत्वाला ध्यान की इच्छा करता हुआ हास्य का पात्र होता है। वैसे ही गुणवान् पुरुषों की सङ्गति के विना मोक्षमुख की इच्छा करने वाला दुर्बुद्धि भी हास्य का पात्र होता है ।। ६५ ।।
(३५)
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यो नित्यं कुमति विहन्ति सततं मोहं विभिन्ते हृदा, गृह्णीते विनयं रतिं च कुरुते धत्तं गुणानां ततिम् । कीत्तिं वर्द्धयति व्यपोहति गतिं दृष्टां प्रसृते शमं, किं नैवं गुणिसङ्गमां जनयति स्वाभीष्टकार्ये नृणाम् ॥
गुणवानों की सङ्गति, कुमति और हृदय के माह को दूर कर ती है । विनय रति प्रेम आदि अनेक गुणों को उत्पन्न करती है । यश की वृद्धि और दुर्गति का नाश कर शान्ति उत्पन्न करती है । ऐसा कौन सा मनुष्यों का इष्ट कार्य है जिसको सत्पुरुषों की सङ्गति उत्पन्न नहीं कर सकती ॥ ६६ ॥
प्राप्तुं सन्मतिमापदां तनिमपाकर्तुं विहर्तुमृती, लब्धुं कीर्त्तिममाधुतां जरयितुं धर्म समासेवितुम् । रोद्धुं पापमुपार्जितुं नियमतः स्वर्मोक्षलक्ष्मी शुभां dri वासि तर्हि मित्र ! गुणिनां सङ्गं सदाङ्गीकुरु ॥
हे मित्र ! यदि बुद्धि प्राप्त करने की, आपदा दूर करने की, सन्मार्ग पर चलने की. कीर्ति प्राप्त करने की, दुर्जनता का नाश करने की, 'सेवन करने की. पाप रोकने की, स्वर्ग और मोक्ष की
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सेठियाग्रंथमाला
लक्ष्मी को पाने की तुम्हारी इच्छा है तो तुम हमेशा सत्सङ्गति करो ॥ ६७ ॥
दुर्जनसङ्गति से हानि-- माहात्म्याम्बुजमण्डले तुहिनति स्वोत्कर्षकालाम्बुदव्यूहे वातति नागति प्रियदयारामे च बज्रायते ।
क्षेमारोग्यसुखोदयादिशिखरे ध्वान्तायते यः सदा, सोऽयं दुर्जनसङ्गमोन विबुधैःसेव्यः कदापि क्वचित् ॥८॥
दुर्जन का सङ्ग महिमारूप कमलसमूह को जलाने के लिए बर्फ के समान, आत्मोन्नतिरूप मेघमण्डल को उड़ाने के लिए पवन के समान, परमप्रिय दयारूप वाटिका को नष्ट करने के लिए हाथी के समान, कल्याण आरोग्य और मुख की उत्पत्तिरूप पर्वतके शिखर को तोड़ने के लिए वज्र के समान, उत्तममार्ग के दर्शन को रोकने केलिए अन्धकार के समान है । अत: बुद्धिमान् कभी दुर्जन का सङ्ग न करे ॥ ६८ ॥
इन्द्रियविजय से लाभआत्मानं विषमाध्वना गमयितुं यो मत्तवाजीयते, कार्याकार्यविवेकजीवहरणे यः क्रुद्धसयते । पूर्वोपार्जितपुण्यशालदहने प्रोद्यद्दवाग्नीयते, तंतीव्राक्षगणं विलुप्तनियम जित्वा सुखी त्वं भव ।।
जो इन्द्रियाँ आत्मा को कुमार्ग में लेजाने के लिए दुष्ट घोड़े के समान हैं, कर्त्तव्य अकर्तव्य के ज्ञान रूप प्राणों का हरण करने के
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नीतिदीपिका
लिए क्रोध को प्राप्त हुए सांप के समान हैं। पूर्वोपार्जित पुण्यरूप वृक्ष को जलाने के लिए दावाग्नि के समान हैं । हे भद्र पुरुषो ! बत नियम का लोप करने वाली इन बलवती इन्द्रियों को जीतकर सुखी बनो ॥६६॥ संहर्तुं नययुक्तपद्धतिमलं ज्ञानं विवेकोद्भवं, __ शीघ्रं नाशयितुं विधातुमनिश सन्तापदुःखव्रजम् । निर्मातुं सततं कुबुद्धिलहरी संसारमूलं च वै,
यः शक्नोति बलात्तमिन्द्रियगणं सद्यो वशं प्रापय ॥ ___ जो इन्द्रियाँ नीतिमार्ग और जड़ चेतन के भेदज्ञान को तत्काल नष्ट करने में समर्थ हैं। निरन्तर मानसिक और शारीरिक दुःख को उत्पन्न करने में, प्रवीण हैं । हमेशा कुबुद्धि रूप जहर की लहर और संसार के दृढ़ मूल कारण राग द्वेष को आविर्भूत करने में पूर्ण समर्थ हैं । इस लिए हे भव्य पुरुषो . इन इन्द्रियों को अति शीघ्र वश में करो ॥७॥ उन्मार्ग नयति प्रकाममखिलान्बध्नाति मोहबजे,
दत्तेऽलं विपदः करोति नितरां सबोधशून्यं जनम् । नित्यं क्लेशयति प्रमादबहुलान्संसारदावानले, मत्तो योऽक्षगणस्तमेव सततं वश्यं करोत्वप्रियम् ॥
ये मदोन्मत्त इन्द्रियाँ समस्त संसारी जीवों को कुमार्ग में लेजाती और मोहजाल में फँसाती हैं । बड़े २ दुःख देती और प्राणियों को सद् ज्ञान शून्य बना देती हैं । तथा प्रमादी जीवों को संसार रूपी
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सेठियाप्रन्यमाला
(३८)
दावाग्नि में नित्य जलाती रहती हैं । इन शत्रुभूत इन्द्रियों को सदा वश में रखना चाहिए ॥ ७१ ॥ लब्धुं धर्ममनेकदोपहरणं संसारनिःमारकं, प्राप्तुं पुण्यसुरद्रुमंच सकलाभीष्टप्रदं दुर्लभम् । संहलै विपदं भवाब्धिजनितां चेत्तेऽस्ति कौतहलं, साधो! संहर शीघमिन्द्रियगणं स्वेच्छाविहारोत्सुकम् ।।
हे साधो ! अनेक दोषों को हरनेवाले और संसार से पार करनेवाले धर्म को प्राप्त करने की यदि तुम्हारी इच्छा है । समस्त मनोरथ को पूरा करनेवाले दुर्लभ पुण्यरूप कल्पवृक्ष को प्राप्त करने की यदि तुम्हारी उत्कण्ठा है । संसारसमुद्र में उत्पन्न होनेवाली सम्पूर्ण विपत्तियों का संहार करने का कौतुक यदि तुम्हारे हृदय में जागृत हुआ है तो इन पांचों इन्द्रियों की स्वच्छंदप्रवृत्ति को शीघ्र गेक दो ॥ ७२ ॥
लक्ष्मी का स्वभावनीचं गच्छति निम्नगेव मदिरेवोन्मत्ततां पुष्यति, निद्रावद्विनिहन्ति चेन्द्रियगण दलेऽन्धतां गत्रिवत् । धने चञ्चलतांबलेन सततं तृष्णां नयत्यत्कटां, ज्वालाक्कमला जलेषु नितरां संभ्राम्यति स्वेच्छया।
लक्ष्मी नदी के समान नीचे अर्थात् नीच पुरुषों के पास जाती है । मदिरा-डागब के समान पागल बना देती है। निद्रा के समान इन्द्रियों को विवेकशून्य करती है। गत्रि के समान अन्धा बनादेती
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है । म चंचलता धागा करती है। अग्नि की ज्वाला की भांति नीव्रतागा (व्याम, लालसा) को उत्पन्न करती है । जल में कमल की तरह यह लक्ष्मी सदा अपनी इच्छा अनुमार मौं में घूमती फिरती है ॥७३॥ अम्य मंस्पृहन्नि बान्धवजना मुष्णन्ति चौरा नृपा
दगडेनाददते बलेन दहना भस्मीकरोति द्रुतम् । तायं प्लावति क्षणादवनिगं यक्षा हरन्त्याकरात्, पुत्रा दुश्चरिता नयन्ति विलयंधिग्बह्वधीनं वसु॥७४॥
जिस धन के लिए भाई भाई परस्पर झगड़ते हैं । चोर चुरा लेते हैं । गजा दण्ड देकर बलपूर्वक छीन लेते हैं। अग्नि शीघ्र भस्म कर देती है। पृथिवी में गड़े हुए धन को पानी बहा लेजाता है। यक्ष खजाने से हर लेते हैं। दुश्चरित्र पुत्र नष्ट कर देते हैं। इस तरह अनेक मनुष्यों की अधीनता में रहने वाले धन को धिक्कार है ॥७४॥ दुष्टानां नितरां कठोरवचनं श्रुत्वा तदुक्तं जवा -
दृद्भाव परिवृत्य कृत्रिममुदं संदर्शयन्ति क्षणम् । मेवायां न विदन्ति किश्चिदकृतज्ञस्यापि निर्विरतां, वित्तार्थ विवुधा जना अपि महाक्लेशान्सहन्तेऽद्भुतम् ॥
धन के लोभी दृष्टों के अति कठोर अपमानजनक वचन सुन कर तत्काल अपने हृदय के भाव बदल कर बनावटी हर्ष प्रकट करते हैं । किंचित् उपकार को नहीं मानने वाले मनुष्यों की सेवा करने
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सेठियाग्रंथमाला
(४०)
पर भी खेदखिन्न नहीं होते हैं। बड़ा आश्चर्य है कि विद्वान् पुरुष भी धन के लिए बड़े २ कष्ट सहते हैं ॥७॥ या श्रीः सर्पति नीचमम्बुधिपयःसङ्गादिवेहाब्जिनी
संसर्गादिव कण्टकाकुलपदा धत्ते पदं न क्वचित् । या हालाहलसन्निधेरिव नृणां देहाद्धरेच्चेतना, ग्राह्य धर्मपदे नियोज्य सुजनैस्तस्याः फलं दुर्लभम् ॥
ऐसी लोकोक्ति है कि लक्ष्मी समुद्र से निकली है । समुद्र में जल कमलिनी और विष भी रहता है । जल की सङ्गति करने से यह लक्ष्मी भी नीच पुरुषों के पास जाती है, अर्थात् जैसे जल नीचे की
ओर जाता है वैसे ही लक्ष्मी भी नीच पुरुषों के पास जाती है । कमलिनी के संसर्ग से लक्ष्मी के पैर में कांटा लग गया, इस लिए यह कहीं पर पाँव स्थिर नहीं रखती है । विष के साथ रहने से यह भी मनुष्यों की चेतना-ज्ञानशक्ति को हर लेती है । इस लिए सज्जनों को चाहिए कि इस लक्ष्मी को धार्मिक कार्यों में लगा कर इससे अनुपम लाभ उठावें ॥७६॥
दानमहिमा-- चारित्रं तनुते ददाति विनयं बोधं नयत्युन्नति,
शान्ति पुष्यति सत्तपः प्रबलयत्युल्लासयत्यागमम् । पुण्यं पल्लवयत्यघं दलयति स्वर्गापवर्गश्रियं, दत्ते पूतधनं सुपात्रनिहितं स्वाभीष्टसौख्यप्रदम् ।।७७॥
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नीतिदीपिका
सुपात्र को दिया गया दान चारित्र की वृद्धि करनेवाला, विनय--नम्रता उत्पन्न करने वाला है । ज्ञान को बढ़ाने वाला, और शान्ति को पुष्ट करने वाला है। सम्यक् तपस्या को प्रबल करने वाला, और अागम का प्रकाश करने वाला है । पुण्य उत्पन्न करने वाला और पाप का नाश करने वाला है, तथा स्वर्ग और मोक्ष की लक्ष्मी को देनेवाला है। उत्तम पात्र के अर्थ लगाया गया पवित्रधन सब मनोवांछित मुख को देता है || ७७ ॥ दानं सौख्यकरं सुतारकमहो संसारदुःखाम्बुधः,
स्वर्मोक्षप्रदमात्मनो हितकरं सहद्धिशान्तिप्रदम् । दुःखघ्नं भवतापजातहरणं सम्पत्करं सन्मतं, दातव्यं विबुधैर्धनं स्वकुशलं वाञ्छद्भिरत्यादरात्॥७॥
दान सुखदेनेवाला तथा सांसारिकदुःखरूप समुद्र से पार करने वाला है । स्वर्ग मोक्ष को देनेवाला तथा आत्मा का हित करने वाला है । सत्पुरुषों ने इसे सद्बुद्धि और शान्ति को देनेवाला दुःख का संहार करनेवाला तथा सम्पत्ति को उत्पन्न करनेवाला माना है । अपना भला चाहने वाले बुद्धिमानों को बड़े आदर से दान करना चाहिये ॥ ७८॥
लक्ष्मीर्वाञ्छति तं मतिमंगयते कीर्तिश्च तं पश्यति, प्रीतिस्तं परिचुम्बतीह सतत स्वास्थ्य सदा सेवते।
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सेठियाग्रंथमाला
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(४२)
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मालिङ्गत्यपि पुण्यसंहतिरथ श्रीमुक्तिबाला वरा, नित्यं तं वृणुते ददाति विभवं धर्माय यो मानवः । ७९ ।
जो मनुष्य अपनी सम्पत्ति को धार्मिक कामों में लगाता है, उसकी लक्ष्मी इच्छा करती है, उसको बुद्धि ढूंढती है, कीर्त्ति उस की ओर देखती है, प्रीति उसका चुम्बन लेती है, नीरोगता उस की सदा सेवा करती है । पुण्यपङ्क्ति उसका आलिङ्गन करती है, सुन्दर मुक्तिरूप कन्या उसे वर लेती है ॥ ७६ ॥ आसन्ना गृहदासिका रतिरयं दातेति सोत्कण्ठया,
कीर्त्तिः स्निग्धतरा रमा परिचयं बुद्धिर्दधाति स्थितिम् । चर्द्धिः करगा सुमुक्तिललना स्यात्सादरा कामुकी, क्षेत्रे शुद्धधिया मुदा वपति यः महित्तबीजं निजम् ॥
जो मनुष्य उत्तम पात्ररूप क्षेत्र में अपने धनरूप बीज को हर्ष पूर्वक बोता है, उस दानी के पास रति--प्रीति बड़ी उत्कण्ठा से घर की दासी के समान सदा बनी रहती है । कीर्ति उससे स्नेह करती और लक्ष्मी उससे सम्बन्ध करती है। उसकी बुद्धि स्थिर रहती और चक्रवर्ती की ऋद्धि उसकी हथैली में आजाती है, तथा मुक्तिरूप स्त्री उसकी आदरपूर्वक इच्छा करती है ॥ ८० ॥
तप की महिमा
यत्प्रागर्जितकर्मभूधर पविर्यन्मारदावानलज्वाला जालजलं यदुत्कटतरा क्षाहीन्द्र मन्त्राक्षरम् ।
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नीतिदीपिका
(४३)
यद्विघ्नान्धकृतिप्रणाशदिवसो यन्मुक्तिलक्ष्मीलता
मूलं तद्विधिना वरं कुरु तपो भूत्वा मुदा निःस्पृहः ॥ ___ जो तप पूर्वोपार्जित कर्मरूप पर्वत का नाश करने के लिए वज के समान है । कामाग्नि की ज्वालाओं को शान्त करने के लिए जल के समान है । उग्र इन्द्रियरूप सर्प को वश में करने के लिए मन्त्र के समान है । विघ्नरूप अन्धकार का नाश करने के लिए दिवस के समान है, तथा मुक्ति रूप लता का मूल है । अत एव सांसारिक विषयवासना की इच्छा न कर इस तप का विधिपूर्वक आचरण करना चाहिए ॥ ८१ ॥ यस्मानश्यति दुष्टविनविततिः कुर्वन्ति दास्यं सुराः,
शान्तिं यानि बली स्मरोऽक्षपटली दाम्यत्यहो सर्पति। कल्याण शुभसम्पदाऽनवरतं यस्मात्स्फुरन्ति स्वयं, नाशं याति च कर्मणां समुदयः स्तुत्यं न किंतत्तपः॥ __ जिसस दृष्ट विनों के समूह का नाश होता है । देवता दास बन जाते हैं । बलवान कामदेव शान्त होजाता है । इन्द्रियों का दमन होता है । मुम्ब सम्पत्ति की निरन्तर वृद्धि होती है। कर्मों के समूह का स्वयं नाश होजाता है । ऐसा तप कैस स्तुति करने योग्य नहीं हो सकता ॥२॥ नान्यः स्याद्विपिनं यथाज्वलयितुं शक्तः कृशानुं विना, स्याच्छतो वनजानलं शमयितुं नान्यो यथाम्भोधरात् ।
A
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सेठियाग्रन्थमाला
(४४)
मेघ नाशयितु यथैव मरुतं हित्वा न कश्चित्क्षम - स्तवत्कर्मचयं विना न तपसा हर्तुं समर्थ परम्॥८३॥
जैसे वन को भस्म करने के लिए अग्नि के सिवा दूसरा कोई समर्थ नहीं है । वन में लगी हुई अग्नि को शान्त करने को मेघ के सिवा किसी दूसरे की सामर्थ्य नहीं है । मेघ का विश्वंश करने के लिए पवन को छोड़कर अन्य कोई सपथ नहीं है। इसी प्रकार कर्मममूह का नाश करने के लिए तप के सिवा दूसरा कोई समर्थ नहीं है ।।८३॥ मन्तोषः खलु यस्य मूलमनिशं पुष्पं शमश्चाभयं, पत्रं यस्य समस्ति चेन्द्रियजयः शाग्वा प्रवालोद्गमः । शीलं यस्य सुवृत्तयुक्तमतुलं श्रद्राम्बुसेको वर्ग, दत्ते मोक्षफलं विकाशममये माऽमतपःपादपः॥८४॥
जिस तप रूपी वृक्ष की जड़ गन्तोष, और श्रद्धा जन्न मींचन के समान है । शान्ति जिसके पुष्पों और अभयदान पत्तों के समान है । इन्द्रियों का जय जिसकी डालियों और सम्यक च रिकामहित शालबत प्रवाल कोंपलों के समान है। पूर्ण विकाशका गा जिन्य मन का फल मोक्ष होता है । म अनुपाग नप पा वृक्ष की प्राय लेना चाहिए
भावना की महिमा--- क्लोबे चन्द्रमुखीकटाक्षरचना व्यर्था यथा लुब्धके, सेवा ग्रावणि पद्मरोपणमिवाम्भावर्षां चोषरे ।
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नीतिदीपिका
स्वाध्यायाध्ययनं प्रदानसुतपः सद्भावपूजादिकं, निःशेषं खलु निष्फलं शुभतरां नित्यं विना भावनाम् ॥
जैसे नपुंसक पर चन्द्र के समान मुग्वाली सुन्दर स्त्री के कटाक्ष तथा लोभी की सेवा निष्फल होती है। पत्थर पर कमल लगाना तथा ऊसर जमीन में जल वरसना व्यर्थ होता है। वैसे ही स्वाध्याय पठन पाठन दान तप भाव सहित पूजा आदि सब उत्तम गुणा एक शुभभावना के विना निष्फल है ||
(४५)
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सर्व ज्ञातुमयां सुपुण्यमग्विलं संप्रामत्युत्कर्ट, को हन्तुममोघवानफलं भाक्तुं तपः सेवितुम ! संसारार्णवपारसन्पममयाल हा भवेनित्यं भाव भावनां हृदि तदा त्यक्त्वा मखे ! चापलम्।।
हे मित्र! यदि समस्त पदार्थों को जानने की सब श्रेत्र पुण्य को प्राप्त करने की. तीच कोन का नाश करने की मनोवांछित फल का भोग करने की, तपस्या करने की, तथा थोड़े ही समय में संसार समुद्र को पार करने की तुम्हारी इच्छा है, तो चलता का त्याग कर हृदय में हमेशा भावना का चिन्तन करी ॥ ॥ संसारार्णवस्त्तरि प्रशमदां मन्तोषमञ्जीविनी,
नित्यं मारवा मेघपटली मुक्तः पथे वेसरीम | मनाक्षणसुवागुरां बलवती रागादिशैलाशनि, हे सावो! भज भावनां किमपरैः कामार्थसिद्धिप्रदाम् ।
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सेठियाप्रन्थमाला
(४६)
हे साधो ? यह भावना मंसारसमुद्र में पार करने के लिए नाव के समान है। शांति तथा सन्तोष उत्पन्न करने वाली और काम ग्नि को शान्त करने के लिए मेघ मंडल के समान है । मोक्षरूपी मार्ग पर चलने के लिए अश्व के समान तथा उन्मत्त इन्द्रियरूपी मृग को वश में करने के लिए दृष्ट जाल के समान है और गगादि दोध रूपी पर्वत का नाश करने के लिए वज्र के समान है । अतएव हे मुने ! दूसरी सब झंझटों को छोड कर धर्म अर्थ काम और मोक्ष को देने वाली इस भावना का सेवन करो ॥ ८७ ॥
दत्तो वित्तचयः सदाभ्यमनती विज्ञातमहडचः, निर्विनेन कृताः क्रियाः खलु महीशय्या ममामेविता तप्तं तीव्रतपः सुचीर्णमनघं सवृत्तमत्यादरान स्वान्ते यदि भावना शुभतरा नयेष मो वृथा।
॥८८॥
जिसने बहुत द्रव्य का दान किया । निरन्तर अभ्यास करके जिनागम का ज्ञान प्राप्त किया। सम्पूर्ण क्रियाओंका निर्विघ्न पालन किया। पृथ्वी पर शयन किया । वार तपस्या तपी । निटोप चारित्र का बडे प्रेम से आचरण भी किया । यदि उसने अपने हृदय में शुभ भावना का चिन्तन नहीं किया तो उसकी उक्त सब क्रिया निकल हैं ॥८८॥
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नीतिदीपिका
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(५७)
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वैराग्यमहिमा -
साक्षरिदाङ्कुशं विरतिसद्योषासुलीलागृहं,
सत्कल्याण सुपुष्पकाननमधाकल्याणमालिन्यकृत् । हृच्छाखामृगशृङ्खलं शिवपथे रम्यो रथो घस्मर - सम्प्रोद्यज्ज्वरभञ्जनं भज सखे! वैराग्यमेवाभयम् ॥
हे मित्र ! वैराग्य इन्द्रिय रूप मदोन्मत्त हाथी को वशीभूत कके लिए अङ्कुश समान है। त्याग रूपी स्त्री के क्रीड़ा करने का कर और कल्याण रूपी पुष्पों का बगीचा है । अमङ्गल का नाश करनेवाला तथा मन रूपी मर्कट को बांधने के लिए सांकल के समान है । मोक्षमार्ग पर चलने के लिए रथ के समान और काल वर का संहार करनेवाला है । अतएव हे मित्र ! संसार के भय से मुक्त करने वाले इस वैराग्य का ही सेवन करो ॥ ८६ ॥ वैराग्यं जयमेति भूमिवलये स्वर्गापवर्गप्रदं, यस्यैवाश्रयतः सुरासुरनराः स्वष्टार्थसिद्धिं गताः । प्रज्ञाः परवञ्चका अपि जना जाताः सुपूज्या यतस्तस्मादाश्रय तत्सखे! किमपरैः संसार संवर्द्धनैः ॥६०॥
स्वर्ग और मोक्ष देनेवाला वैराग्य भूमण्डल पर सदा जयवंत रहे, अर्थात् प्राणी इसका सदा सेवन करें। जिस वैराग्य का आश्रय लेकर सुर असुर और मनुष्यों ने इष्ट पदार्थ को प्राप्त किया है। बुद्धिहीन और दूसरों को ठगने लूटने वाले जीव भी जिसके प्रताप
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सेठियाग्रंथमाला
(४८)
से संसार में पून्य हुऐ हैं । अतएव हे मित्र. संसार की वृद्धि करने वाले दूसरे सब कामों को छोड़ कर इस वैराग्य का ही पालन करा
कालोऽयं दिनमामवर्षविधया लोकत्रयीभक्षको, याता यान्ति च कालचक्रविवरं यास्यन्ति लोकाः सदा। लक्ष्मीस्तुङ्गतरङ्गभङ्गचपला विद्युच्चलं जीवनं, तस्मात्सौम्यजनाः समाश्रयत भो वैराग्यमेवाचलम्॥ काल दिन सहिन और पी द्वारा तीन लोक के पढार्थी का भक्षण करता है। समस्त प्राणी इस कालचक्रमें गिरकर नाशको प्रान हुए हैं हो रह हैं और होगे । लक्ष्मी जल की तरङ्गक समान और जीवन बिजली के समान चंचल है । अतएव ह शान्तपुरुषों ! स्थिर वैराग्य को धारण करो ॥६॥ भोगान्कृष्णभुजङ्गभोगविषमात्राज्यं रजासन्निभं,
बन्धून्बन्धकरान्कषायनिचयं हालाहलानोपमम् । भूति भूतिसमां तृणेन सदृशं स्त्रैणं विचिन्त्य द्रुतमासक्तिं परितस्त्यजन्प्रवृणुते मोक्षं विरागी यतः ॥
इन्द्रियों के विषय काले सांप के समान, गज्य धूल के समान, बन्धुलोग बन्ध के कारगा, क्रोबादि कपाय विष के समान, ऐश्वर्य भस्म के समान तथा स्त्रीसमूह तृण के समान है, ऐसा समझकर
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नीतिदीपिका
संसार के सम्पूर्ण पदार्थों से उदासीन रहे । क्योंकि वीतरागी ही मोक्ष को प्राप्त कर सकता है ॥ ६२ ॥
(४३)
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सामान्य उपदेश
सर्वस्वार्पणवृत्तितस्तनुभृतां यत्रो महान रक्षणे, संसारार्णवतारकस्य सुगुरोश्रोपासना मुक्तिदा । अर्हद्भक्तिगुणानुरक्तिरनघा पात्रेषु दानं क्षितावेतान्येव फलानि मानवतरोर्जातस्य नान्यत्फलम् ॥ सर्वस्व देकर प्राणियों की रक्षा करना, संसारसमुद्र से पार सुगुरु की मोक्ष देनेवाली सेवा करना, अरिहन्त देव की भक्ति करना गुणों में प्रीति रखना तथा पात्रदान देना, ये सब प्राप्त हुए मनुष्यजन्म रूपी वृक्ष के फल हैं, और दूसरा कोई फल नहीं है ॥ ६३ ॥
करनेवाले
भक्ति योग्यतरां जिने कुरु गुरोर्बोधं शृणु श्रद्धया, पात्रे दानमनुत्तमं कुरु मनोवृत्तिं वशे स्थापय । क्रोधायान्तरवैरिवर्गमनिशं चोन्मूलय प्रेमतो
दीने धेहि दयां सदा जिनवचः श्रद्धेहि मुक्तिं वृणु ॥
जिनेन्द्रदेव की योग्य सेवा भक्ति करो। निर्ग्रन्थ गुरु का ज्ञानोपदेश सुनो। सुपात्र को श्रद्धापूर्वक दान दो। प्रेमपूर्वक दीनों पर दया करो । जिनेन्द्रदेव के वचनों पर श्रद्धा करो | मन के विचारों को वश में रखो, तथा क्रोधादि अन्तरङ्ग शत्रुओं को जड़ से उखाड़ कर फेंक दो, और शिवरमणी को वरो ॥ ६४ ॥
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सठियाग्रंथमाला
(५०)
सद्भक्त्याऽहत आदरेण विनमन्कुर्वन् तदीयां पुन:,
पूजामारचयन् तदीयवचसि श्रद्धाभरं भावयन् । तद्वयाख्यातपदार्थभारमनिशं चित्तेन संभावयन् , रागद्वेषपटच्चरैः परिहृतं स्वं याहि मोक्षायनम् ॥
अरिहन्त भगवान् को आदरपूर्वक नमस्कार कर भक्तिपूर्वक पूजा करे, तथा इनके वचनों का विश्वास कर आगम में वर्णन किये गये तत्त्वों का चित्त में मनन करे, और गगद्वेष रूपी चोरों में आत्मा की रक्षा करता हुआ मोक्ष मार्ग पर गमन करे ॥ ६५ ॥ कीर्तिर्दिनु यथाऽनिशं प्रसरति प्रोद्यत्क्षपेशप्रभा
तुल्या स्फातिमुपैति सद्गगततिः स्वान्यादा कुवती । वृद्धिं याति यथा सुधर्मविटपी कर्मातपक्षादकच्छ्रद्धासज्जलमेचिताऽध्वनि तथा कार्य सदा वर्तनम्।।
जिस मार्ग पर चलने स चन्द्रमा की कान्ति के समान कीर्ति निरन्तर बढ़ती रहे, अपने और दूसर की उन्नति करनेवाले गुण प्रतिदिन उन्नत होते जावें तथा श्रद्धारूपी जल से सींचा हुआ कर्मसंताप को दूर करनेवाला वर्म रूपी वृक्ष बढ़ता रहे, उसी मार्ग पर सदा चलना चाहिये || ६६ ॥ हस्ते दानमनन्तपुण्यफलदं मूर्ध्नि प्रणामो गुरोः,
वाणी सत्ययुता मुखे श्रवणयोः सत्यं श्रुतं शाश्वतम्। स्वान्ते वृत्तिरभेदभावलसिता बाहाः शुभं पौरुषं,
चैश्चर्येण विनाप्युदारमनसामेतन्महामण्डनम् ॥९॥
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नीतिदीपिका
दान चार प्रकार के हैं, अभयदान औषधदान आहारदान और ज्ञानदान । अनन्त पुण्य उत्पन्न करने वाले इन दानों को यथाशक्ति प्रति दिन कग्ना, गुरु को मस्तक नवाकर प्रणाम करना, मुख से सत्य वचन बोलना, कानों से सदाशास्त्र सुतना अन्तःकरण से सब के साथ समानभाव रखना, भुजाओं से उत्तम पुरुषार्थ करना, ये सब उदार चित्त वाले महापुरुषों के विना वैभव (ऐश्वर्य ) के आभूषण हैं ||२७||
(५१)
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मुक्तवेमां जननाटवीं जिगमिषुश्चेत्वं सदा मौख्यदां, मुक्तिपुरीं तदा न वसतिः कार्या कषायमे । श्लाघाऽप्यस्य ददानि माहमचिराच्चिते प्रसन्ने यतोयस्माज्जन्तुरयं पदात्पदमपि स्वैरं न गन्तुं प्रभुः ॥ ९८ ॥ यदि तुम इस संसार रूपी भयानक वन को छोड़कर अनन्त सुख देनेवाली सुन्दर मुक्तिरूप नगरी को जाना चाहते हो, तो कषाय रूपी वृक्ष के नीचे निवास मत करो। क्योंकि इस कषाय की प्रशंसा भी स्वच्छ चित्त में मोह उत्पन्न करती है, जिससे यह प्राणी स्वच्छन्द्र एक पैर भी आगे बढ़ाने को समर्थ नहीं होता है ॥ ६८
उपसंहार
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मन्दानामतिशुद्धबोधजनकं सन्मार्गसंयोजक, ग्राह्यं मध्यमधीजुषां रुचिकरं वैराग्यपुष्टिप्रदम् । चित्तस्वास्थ्यकरं सदा शुभधियां सन्तोषवृद्धयावहं, नीदीपक भूतमेतदनिशं चित्ते सदा भासताम् ॥
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सेठियाग्रंथमाला
यह नीतिदीपक अन्य मन्द बुद्धिवालों को विशुद्धबोध देनेवाला और सत्यमार्ग पर लगानेवाला है। मध्यम बुद्धिवालों के ग्रहण करने योग्य रुचिकर तथा वैराग्य को दृढ़ करने वाला है। निर्मल बुद्धिवालों का चित्त निर्मल करने वाला तथा सदा सन्तोष की वृद्धि करने वाला हैं । अतएव यह अन्य निरन्तर मनुष्यों के चित्त में प्रकाशित होता रहे ॥ ६ ॥ आसल्लिम्बडिसम्प्रदायतिलकाः श्रीदेवजीस्वामिनस्तच्छिष्यो नथुजिद्गुरुवरकृतिस्तत्सेवकः कानजित् । सिन्दूरप्रकरं विना विषमतामाश्रित्य वृत्तोद्भवां, चेतोरजकनीतिदीपकशतं बोधाप्तये निर्ममे ॥१०॥
लिम्बड़ी सम्प्रदाय में तिलकायमान श्रीदेवजी स्वामी हुए । इन के शिष्य कर्तव्यपरायण गुरु श्री नत्थूजी स्वामी हुए । इनके शिश्य कानजी स्वामी ने सोमप्रभाचार्यविरचित सिन्दूरप्रकर का सहारा लेकर सरल पद्यों में यह चित्त प्रसन्न करनेवाला नीतिदीपक शतक ग्रन्थ स्व पर का ज्ञान प्राप्त करने के लिए बनाया ॥ १० ॥
॥ इति श्रीनीतिदीपकशतकं समाप्तम् ।। पुस्तक मिलने का पता - अगरचन्द भैरोंदान सेठिया मोहल्ला मरोटियों का
बीकानेर-( राजपूताना)
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शुद्धिपधम् ।
पडिक
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२१
तिष्ठत तिष्ठन्ति मुक्तिसखामुक्तिसखी जिवों जीवों वीतरगादेव धोतरागदेव पापपुखवि लीन पापपुञ्ज विलीन सिष्ट सिंह लुखरूप
सुखरूप दुष्यमों
दृद्ध
सवाञ्छत्यसौ स वाञ्छत्यसो सतत स्वास्थ्य सततं स्वास्थ्य
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________________ ാക കാക്കനൽ തനനനനന തനനനനഗരത്തിൽ ശ്രീല Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra - For Private And Personal Use Only അരയരൾരൾതൾർർർർർർർർർർർർ www.kobatirth.org 1 ( 11 ) इस प्रेस (छापाखाना) में जैनधर्म सम्बन्धी किवावे छापी जाती है दीसेठिया जैन प्रिंटिंग मेर Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir അധധധധധ ധpധത്ത തുരുതൽ നനയുൽ ഗതതർ തയ്യാതനകൾ അൽ അ