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सेठियाप्रन्यमाला
(३८)
दावाग्नि में नित्य जलाती रहती हैं । इन शत्रुभूत इन्द्रियों को सदा वश में रखना चाहिए ॥ ७१ ॥ लब्धुं धर्ममनेकदोपहरणं संसारनिःमारकं, प्राप्तुं पुण्यसुरद्रुमंच सकलाभीष्टप्रदं दुर्लभम् । संहलै विपदं भवाब्धिजनितां चेत्तेऽस्ति कौतहलं, साधो! संहर शीघमिन्द्रियगणं स्वेच्छाविहारोत्सुकम् ।।
हे साधो ! अनेक दोषों को हरनेवाले और संसार से पार करनेवाले धर्म को प्राप्त करने की यदि तुम्हारी इच्छा है । समस्त मनोरथ को पूरा करनेवाले दुर्लभ पुण्यरूप कल्पवृक्ष को प्राप्त करने की यदि तुम्हारी उत्कण्ठा है । संसारसमुद्र में उत्पन्न होनेवाली सम्पूर्ण विपत्तियों का संहार करने का कौतुक यदि तुम्हारे हृदय में जागृत हुआ है तो इन पांचों इन्द्रियों की स्वच्छंदप्रवृत्ति को शीघ्र गेक दो ॥ ७२ ॥
लक्ष्मी का स्वभावनीचं गच्छति निम्नगेव मदिरेवोन्मत्ततां पुष्यति, निद्रावद्विनिहन्ति चेन्द्रियगण दलेऽन्धतां गत्रिवत् । धने चञ्चलतांबलेन सततं तृष्णां नयत्यत्कटां, ज्वालाक्कमला जलेषु नितरां संभ्राम्यति स्वेच्छया।
लक्ष्मी नदी के समान नीचे अर्थात् नीच पुरुषों के पास जाती है । मदिरा-डागब के समान पागल बना देती है। निद्रा के समान इन्द्रियों को विवेकशून्य करती है। गत्रि के समान अन्धा बनादेती
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