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नीतिदीपिका
लिए क्रोध को प्राप्त हुए सांप के समान हैं। पूर्वोपार्जित पुण्यरूप वृक्ष को जलाने के लिए दावाग्नि के समान हैं । हे भद्र पुरुषो ! बत नियम का लोप करने वाली इन बलवती इन्द्रियों को जीतकर सुखी बनो ॥६६॥ संहर्तुं नययुक्तपद्धतिमलं ज्ञानं विवेकोद्भवं, __ शीघ्रं नाशयितुं विधातुमनिश सन्तापदुःखव्रजम् । निर्मातुं सततं कुबुद्धिलहरी संसारमूलं च वै,
यः शक्नोति बलात्तमिन्द्रियगणं सद्यो वशं प्रापय ॥ ___ जो इन्द्रियाँ नीतिमार्ग और जड़ चेतन के भेदज्ञान को तत्काल नष्ट करने में समर्थ हैं। निरन्तर मानसिक और शारीरिक दुःख को उत्पन्न करने में, प्रवीण हैं । हमेशा कुबुद्धि रूप जहर की लहर और संसार के दृढ़ मूल कारण राग द्वेष को आविर्भूत करने में पूर्ण समर्थ हैं । इस लिए हे भव्य पुरुषो . इन इन्द्रियों को अति शीघ्र वश में करो ॥७॥ उन्मार्ग नयति प्रकाममखिलान्बध्नाति मोहबजे,
दत्तेऽलं विपदः करोति नितरां सबोधशून्यं जनम् । नित्यं क्लेशयति प्रमादबहुलान्संसारदावानले, मत्तो योऽक्षगणस्तमेव सततं वश्यं करोत्वप्रियम् ॥
ये मदोन्मत्त इन्द्रियाँ समस्त संसारी जीवों को कुमार्ग में लेजाती और मोहजाल में फँसाती हैं । बड़े २ दुःख देती और प्राणियों को सद् ज्ञान शून्य बना देती हैं । तथा प्रमादी जीवों को संसार रूपी
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