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नीतिदीपिका
है । म चंचलता धागा करती है। अग्नि की ज्वाला की भांति नीव्रतागा (व्याम, लालसा) को उत्पन्न करती है । जल में कमल की तरह यह लक्ष्मी सदा अपनी इच्छा अनुमार मौं में घूमती फिरती है ॥७३॥ अम्य मंस्पृहन्नि बान्धवजना मुष्णन्ति चौरा नृपा
दगडेनाददते बलेन दहना भस्मीकरोति द्रुतम् । तायं प्लावति क्षणादवनिगं यक्षा हरन्त्याकरात्, पुत्रा दुश्चरिता नयन्ति विलयंधिग्बह्वधीनं वसु॥७४॥
जिस धन के लिए भाई भाई परस्पर झगड़ते हैं । चोर चुरा लेते हैं । गजा दण्ड देकर बलपूर्वक छीन लेते हैं। अग्नि शीघ्र भस्म कर देती है। पृथिवी में गड़े हुए धन को पानी बहा लेजाता है। यक्ष खजाने से हर लेते हैं। दुश्चरित्र पुत्र नष्ट कर देते हैं। इस तरह अनेक मनुष्यों की अधीनता में रहने वाले धन को धिक्कार है ॥७४॥ दुष्टानां नितरां कठोरवचनं श्रुत्वा तदुक्तं जवा -
दृद्भाव परिवृत्य कृत्रिममुदं संदर्शयन्ति क्षणम् । मेवायां न विदन्ति किश्चिदकृतज्ञस्यापि निर्विरतां, वित्तार्थ विवुधा जना अपि महाक्लेशान्सहन्तेऽद्भुतम् ॥
धन के लोभी दृष्टों के अति कठोर अपमानजनक वचन सुन कर तत्काल अपने हृदय के भाव बदल कर बनावटी हर्ष प्रकट करते हैं । किंचित् उपकार को नहीं मानने वाले मनुष्यों की सेवा करने
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