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(२५)
नीतिदी
क्रोधः कीर्त्तिहरो जनेषु सततं प्रीतिप्रतिष्ठाज्वरः, क्रोधः कष्टकुकर्मबीजवपनात्संसार संबर्द्धकः । क्रोधः शान्तिविघातकृन्निजपरज्ञानोद्विघाताश्रय - स्तस्मादात्महितैषिभिर्बुधजनैः क्रोधः स हेयोऽनिशम् ॥
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क्रोध सुयश का नाश करने वाला तथा मनुष्यों में फैली हुई प्रतिष्ठा और प्रीति को कुश करने में बुखार के समान है। क्रोध दुःखदायी दुष्कमों का बीज बोकर संसार को बढ़ाने वाला है। क्रोध शान्ति का भङ्ग करने वाला तथा स्व और पर के भेद ज्ञान का विधात करने वाला है । इस लिए आत्मा का भला चाहने वाले बुद्धिमानों को इसकोध का विलकुल त्याग कर देना चाहिए ॥ ४६ ॥ तापं संतनुते विवेकविनयौ नित्यं भिनत्ति स्वयं, सौहार्द सततं नित्ति कुरुतेऽत्युद्वेगितामादरात्। तेऽवद्यवचः करोति कलहं भिन्ते हि पुण्योदयं, दत्ते दुर्गतिदुर्मती हि नियतं रोषः सदोषः सदा ॥ ४७ ॥
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क्रोध संताप को बढ़ाता है । विवेक और विनय को दूर कता है । को बहुत काल की गाड़ी मित्रता को क्षण भर में नष्ट कर देता है । चित्त में निरन्तर उद्वेग बनाये रखता है । क्रोध पाप I जनक वचनों का उच्चारण कराता है । कलह उत्पन्न करता है। पुण्य का क्षय करता है । दुर्बुद्धि और दुर्गति को उत्पन्न करता है । अतएव यह रोष सर्वदा दोषों का जनक है । इसको छोड़ने से ही आत्मा का भला हैं ॥४७॥
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