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सेठियाग्रंथमाला
जाता है तथा उसकी बुद्धि पाप कार्यों में ही प्रवृत्त होती है। लोभी.. मनुष्य सदा दूसरे का बुरा करने में तथा निन्दा करने में तत्पर रहता है । लालच के कारण मनुष्य बद्ध विचारवाला तथा गायशाली क्ति भी भाग्य हीन हो जाता है ।।,१.४.
यो, नित्य कटुतापको विकृतिकृत्रासादो नाशक
ब्रह्मेनित्यसहोदरः शमरिपुः सत्कीर्त्तिवल्लीगजः । यो मूलं विषपादपस्य विमलज्ञानाम्बुतेजापतिः, क्रोधोऽयं कुशलेच्छुभिः सकुशलैस्त्याज्यो विपत्कार
णम् ॥५४॥ क्रोध के.वशीभूत हुआ मनुष्य नीच पुरुषों के बोलने योग्य नि: न्य वचन बोलता है । क्रोध शरीर और आत्मा में विकार उत्पन्न क : रने वाला है, तथा चित्त में उद्वेग उत्पन्न करने वाला है । क्रोध के द्वारा प्राणी अपना और पाभ प्रातकाले हैं। क्रोध अग्नि त समान प्रतिमा को जलाने वाला मा शान्ति गुणगा, या शोचीति रूपी लेता का नाश के लिए हाथी के समान है। यह को वृक्ष की जड़ है ! निर्मक सन्म प्रवाल को मधवने के लिएासूर्य के में मान है, और विपत्तियों का मूल कारण है. | ऐसा समझकर आत्महितेच्छु पुरुषों को चाहिए कि इस क्रोध शत्रु का सर्वथा त्याग क' ग्दें ॥४५॥
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