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मठियाप्रंथमाला
(२६)
वृक्षं दाव इव द्रुतं दहति यो धर्म च नीति लतां,
दन्तीवेन्दुकलां च राहुरिव या स्वार्थ विहन्त्यम्बुदम् । वायुश्चेव विलासयत्यतितरां पापावली चापदं, कामं कर्मकषायदः समुचितः कत्तुं स कोपः कथम्॥४८॥
जैस दावाग्नि वृक्षको जलाती है, ऐसे ही क्रोध धर्म को जला देता है । जैसे हाथी लता का भङ्ग करता है, इसी प्रकार क्रोध नीति का भङ्ग करता है । जैसे राह चन्द्रमा को प्रस लेता है, इसी तरह क्रोध आत्महित को ग्रस लेता है। जैसे वायु मेघों को एकत्र करता है, इसी प्रकार क्रोध पापकर्मों और आपदाओं का संचय करता है। क्या ऐसे कर्म और कषाय को उत्पन्न करनेवाले क्रोध को आत्मा में स्थान देना चाहिये? ॥ ४८॥
मानप्रकरणयस्मादुद्भवति प्रदुस्तरतरा व्यापनदीनां ततियस्मिन् शिष्टमतं च नास्ति सुगुणग्रामस्य नामाप्यहो। यो नित्यं वहति प्रकोपदहनं यः कष्टवन्याकुलो, मानाद्रिं हर तंद्रुतं किल दुरारोहं सुवृत्तेः सदा ॥४६॥
जिस अहंकाररूपी पर्वत से अतिकष्ट से पार करने योग्य विपत्ति रूपी नदियाँ निकलती हैं । जिस मानरूपी पर्वत पर सजन पुरुषों के आदर करने योग्य उत्तम गुण रूपी गाँव का नाम तक नहीं है । जो नित्य क्रोधरूपी अग्नि को धारण करता है। जो दुःखपरूी वृक्षों से व्याप्त है, तथा जिस पर चढ़ना अति कठिन है।
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