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नीतिदीपिका
(४३)
यद्विघ्नान्धकृतिप्रणाशदिवसो यन्मुक्तिलक्ष्मीलता
मूलं तद्विधिना वरं कुरु तपो भूत्वा मुदा निःस्पृहः ॥ ___ जो तप पूर्वोपार्जित कर्मरूप पर्वत का नाश करने के लिए वज के समान है । कामाग्नि की ज्वालाओं को शान्त करने के लिए जल के समान है । उग्र इन्द्रियरूप सर्प को वश में करने के लिए मन्त्र के समान है । विघ्नरूप अन्धकार का नाश करने के लिए दिवस के समान है, तथा मुक्ति रूप लता का मूल है । अत एव सांसारिक विषयवासना की इच्छा न कर इस तप का विधिपूर्वक आचरण करना चाहिए ॥ ८१ ॥ यस्मानश्यति दुष्टविनविततिः कुर्वन्ति दास्यं सुराः,
शान्तिं यानि बली स्मरोऽक्षपटली दाम्यत्यहो सर्पति। कल्याण शुभसम्पदाऽनवरतं यस्मात्स्फुरन्ति स्वयं, नाशं याति च कर्मणां समुदयः स्तुत्यं न किंतत्तपः॥ __ जिसस दृष्ट विनों के समूह का नाश होता है । देवता दास बन जाते हैं । बलवान कामदेव शान्त होजाता है । इन्द्रियों का दमन होता है । मुम्ब सम्पत्ति की निरन्तर वृद्धि होती है। कर्मों के समूह का स्वयं नाश होजाता है । ऐसा तप कैस स्तुति करने योग्य नहीं हो सकता ॥२॥ नान्यः स्याद्विपिनं यथाज्वलयितुं शक्तः कृशानुं विना, स्याच्छतो वनजानलं शमयितुं नान्यो यथाम्भोधरात् ।
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