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नीतिदीपिका
संसार के सम्पूर्ण पदार्थों से उदासीन रहे । क्योंकि वीतरागी ही मोक्ष को प्राप्त कर सकता है ॥ ६२ ॥
(४३)
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सामान्य उपदेश
सर्वस्वार्पणवृत्तितस्तनुभृतां यत्रो महान रक्षणे, संसारार्णवतारकस्य सुगुरोश्रोपासना मुक्तिदा । अर्हद्भक्तिगुणानुरक्तिरनघा पात्रेषु दानं क्षितावेतान्येव फलानि मानवतरोर्जातस्य नान्यत्फलम् ॥ सर्वस्व देकर प्राणियों की रक्षा करना, संसारसमुद्र से पार सुगुरु की मोक्ष देनेवाली सेवा करना, अरिहन्त देव की भक्ति करना गुणों में प्रीति रखना तथा पात्रदान देना, ये सब प्राप्त हुए मनुष्यजन्म रूपी वृक्ष के फल हैं, और दूसरा कोई फल नहीं है ॥ ६३ ॥
करनेवाले
भक्ति योग्यतरां जिने कुरु गुरोर्बोधं शृणु श्रद्धया, पात्रे दानमनुत्तमं कुरु मनोवृत्तिं वशे स्थापय । क्रोधायान्तरवैरिवर्गमनिशं चोन्मूलय प्रेमतो
दीने धेहि दयां सदा जिनवचः श्रद्धेहि मुक्तिं वृणु ॥
जिनेन्द्रदेव की योग्य सेवा भक्ति करो। निर्ग्रन्थ गुरु का ज्ञानोपदेश सुनो। सुपात्र को श्रद्धापूर्वक दान दो। प्रेमपूर्वक दीनों पर दया करो । जिनेन्द्रदेव के वचनों पर श्रद्धा करो | मन के विचारों को वश में रखो, तथा क्रोधादि अन्तरङ्ग शत्रुओं को जड़ से उखाड़ कर फेंक दो, और शिवरमणी को वरो ॥ ६४ ॥
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