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नीतिदीपिका
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(५७)
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वैराग्यमहिमा -
साक्षरिदाङ्कुशं विरतिसद्योषासुलीलागृहं,
सत्कल्याण सुपुष्पकाननमधाकल्याणमालिन्यकृत् । हृच्छाखामृगशृङ्खलं शिवपथे रम्यो रथो घस्मर - सम्प्रोद्यज्ज्वरभञ्जनं भज सखे! वैराग्यमेवाभयम् ॥
हे मित्र ! वैराग्य इन्द्रिय रूप मदोन्मत्त हाथी को वशीभूत कके लिए अङ्कुश समान है। त्याग रूपी स्त्री के क्रीड़ा करने का कर और कल्याण रूपी पुष्पों का बगीचा है । अमङ्गल का नाश करनेवाला तथा मन रूपी मर्कट को बांधने के लिए सांकल के समान है । मोक्षमार्ग पर चलने के लिए रथ के समान और काल वर का संहार करनेवाला है । अतएव हे मित्र ! संसार के भय से मुक्त करने वाले इस वैराग्य का ही सेवन करो ॥ ८६ ॥ वैराग्यं जयमेति भूमिवलये स्वर्गापवर्गप्रदं, यस्यैवाश्रयतः सुरासुरनराः स्वष्टार्थसिद्धिं गताः । प्रज्ञाः परवञ्चका अपि जना जाताः सुपूज्या यतस्तस्मादाश्रय तत्सखे! किमपरैः संसार संवर्द्धनैः ॥६०॥
स्वर्ग और मोक्ष देनेवाला वैराग्य भूमण्डल पर सदा जयवंत रहे, अर्थात् प्राणी इसका सदा सेवन करें। जिस वैराग्य का आश्रय लेकर सुर असुर और मनुष्यों ने इष्ट पदार्थ को प्राप्त किया है। बुद्धिहीन और दूसरों को ठगने लूटने वाले जीव भी जिसके प्रताप
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