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मेठियाग्रन्थमाला
(३४)
नहीं । जैसे मनुष्यों का स्वाभाविक कुशपना ही मुन्दा और परिगणाम में मुग्व देने वाला होता है । किन्तु सूजन से उत्पन्न हुआ स्थूलपना न तो मुन्दर है और न एरिणाम में मुखदेने वाला ही होता है ॥ ६३ ॥ दोषं न प्रकटीकरोति सुतरां ब्रूते परेषां गुणं
मन्तोषं परितो दधाति महनीमन्यर्द्धिमालोक्य वा। शोकं यत्परपीड़या प्रकुरुते नात्मप्रशंमां कचिनीति नोज्झतिनो क्रुधं वितनुते मैष स्वभावः सताम् ।।
सजन दूमरों के दोष प्रकट नहीं करते, लेकिन गुणों को स्वयं प्रकट करते हैं। मत्पुरुष दूसरों की सम्पत्ति देखकर लोभ नहीं करते, किन्तु मन्ताप धारण करते हैं। उत्तम मनुष्य अन्य जीवों को पीड़ित देखकर दुःखी होते, आत्मप्रशंमा नहीं करते, तथा नीति का त्याग नहीं करते और न क्रोध ही करते हैं । ये सब स जनों के स्वाभाविक गुण हैं ॥ ६४ ॥
गुणवानों की सङ्गति से लाभधर्म निष्करणा यशांस्यविनयों द्रव्यं प्रमत्ता जनी, निवुद्धि कवितां तपःशमदद्याहीनोऽल्पवुद्धि : श्रुतम्। पालोक गतलोचनश्चलमना ध्यान सवाञ्छत्यसो, यः सङ्गं गुणिनां विहाय कुमतिःश्रेयासुखं लिप्सति ॥
जैसे निर्दयी धर्म की, अभिमानी यश की, आलमी धन की, निबुद्धि कविता की, तप शम दयाहीन और अल्पबुद्धि आगम ज्ञान की,
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