Book Title: Niti Dipak Shatak
Author(s): Bhairodan Jethmal Sethiya
Publisher: Bhairodan Jethmal Sethiya

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Page 31
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोतिदीपिका (२६) के समान है, अर्थात् जैसे स्वयंवर में कन्या वरमाला पहनाकर अपना पति स्वीकार करती है, इसी प्रकार दुर्गतिरूप स्त्री मायाचारी पुरुष को मायारूपी वरमाला पहनाकर अपना स्वामी बना लेती है । जो माया शान्तिरूप कमलके बन को जलाने के लिए बर्क के समान है, तथा अपयश की राजधानी है । इस प्रकार भनेक दुःग्व उत्पन्न करनेवाली माया को सदा दूर ही से त्याग देना चाहिए ॥५३॥ मायां ये परवञ्चनाय रचयन्त्यज्ञानतः सादरं, मायाजैर्विविधैरुपायनिकरैर्नित्यं मनःकल्पितः । ते व्यामोहसखा विहाय सततं स्वर्गादिकं सत्सुखं, स्वात्मान परिवश्यन्ति सहसा स्वार्थानचेष्टा नराः ॥ जो मनुष्य अपने मन की कल्पनाओं से अनेक उपाय सोचकर अज्ञानवशा दूसरों को ठगते हैं , वे अज्ञानी अपनी आत्मा को स्वर्गादि के मुख से वञ्चित रखते हैं, तथा अपने स्वार्थ का प्रकस्मात् नाश कर बैठते हैं ॥५४॥ ये मायां दुरिताशया विद्धतेऽविश्वासभूमि परां, स्वार्थना द्रविणाशया कुमतयो मोहाग्निदग्धा जनाः । ते पश्यन्ति तथा पतन्तमतुलं चानर्थसारं पुरः, सानन्दं प्रपिबन्पयो न लगुडं मत्ती विडालोयथा ।। जो पापी धन के लोभ से अविश्वास उत्पन्न करने वाली माया-छल करते हैं, वे मोहरूपी अग्नि से जले हुए दुर्बुद्धि अपने स्वार्थ For Private And Personal Use Only

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