Book Title: Nirayavalika Sutra Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh View full book textPage 4
________________ निवेदन किसी भी धर्म स्वरूप को समझने का मुख्य आधार उस का श्रुत साहित्य है। उस के आधार से उस धर्म की प्राचीनता, आचार-विचार तात्त्विक विधि विधानों की जानकारी होती है। जैन दर्शन के आगम साहित्य के अलावा जैनेतर जितने भी दर्शन हैं उनके साहित्य के रचयिता छद्मस्थ व्यक्ति हैं, जबकि जैन आगम साहित्य के मूल उपदेष्टा अनन्तज्ञानी परम वीतरागी तीर्थंकर प्रभु हैं, जो चार घाति कर्मों के क्षय होने पर यानी पूर्णता प्राप्त होने पर वाणी की अर्थ रूप में वागरणा करते हैं, जिन्हें गणधरादि महापुरुष सूत्र रूप में गूंथन करते हैं, जो परम्परा से प्रवाहित होती हुई आचार्य श्री देवर्द्धि क्षमाश्रमण द्वारा पुस्तक बद्ध हुई तथा आज हम तक पहुंची। जैन आगम साहित्य का अनेक प्रकार से वर्गीकरण मिलता है। सबसे प्राचीन वर्गीकरण समवायांग सूत्र में प्राप्त है। वहाँ पूर्व और अंग के रूप में विभाग किया गया है। संख्या की दृष्टि से पूर्व चौदह और अंग बारह थे। नंदी सूत्र में जो आगमों का वर्गीकरण मिलता है, वहाँ सम्पूर्ण आगम साहित्य को अंग प्रविष्ट और अंग बाह्य के रूप में विभक्त किया है। आगमों का तीसरा और सबसे अर्वाचीन वर्गीकरण अंग, उपांग, मूल, छेद और आवश्यक सूत्र के रूप में किया गया है। यह वर्गीकरण सभी में उत्तरवर्ती है, इसके अनुसार म्यारह अंग, बारह उपांग, चार मूल, चार छेद एवं आवश्यक सूत्र। इस वर्गीकरण के अनुसार वर्तमान में ३२ आगम उपलब्ध हैं, जो श्वेताम्बर परम्परा के सभी आम्नाय को मान्य हैं। यह निर्विवाद है कि अंगों के रचयिता गणधर भगवन्त हैं और उपांगों के रचयिता दस से यावत् चौदह पूर्वधारी विभिन्न स्थविर भगवन्त हैं। यद्यपि उपांगों के रचयिता पूर्वधर स्थविर भगवन्त हैं, पर उनकी प्रमाणिकता भी उतनी ही है, जितनी अंग साहित्य की, क्योंकि पूर्वधर स्थविर भगवन्तों ने इनका निर्वृहण चौदह पूर्वो में से ही किया है। अतएव इनकी विषय सामग्री की प्रामाणिकता में किसी तरह की संदिग्धता नहीं है। कई आचार्यों ने प्रत्येक अंग का एक उपांग माना है। किन्तु जब उनकी एक दूसरे की विषय सामग्री का अनुशीलन किया जाता है तो वह एक दूसरे के पूरक नहीं होकर भिन्न नजर आती है, यानी उनका एक दूसरे का कोई संबंध ही दृष्टिगोचर नहीं होता है। प्रत्येक अंग का एक उपांग मानने पर उपांग का विषय विश्लेषण, प्रस्तुतिकरण आदि की दृष्टि से अंग के साथ सम्बन्ध होना चाहिए पर उस प्रकार का सम्बन्ध यहां दृष्टिगोचर नहीं होता है। उदाहरण के रूप में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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