Book Title: Nijdosh Darshan Se Nirdosh
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 5
________________ निवेदन परम पूज्य दादा भगवान' के प्रश्नोत्तरी सत्संग में पूछे गये प्रश्न के उत्तर में उनके श्रीमुख से अध्यात्म तथा व्यवहार ज्ञान संबंधी जो वाणी निकली, उसको रिकॉर्ड करके, संकलन तथा संपादन करके पुस्तकों के रूप में प्रकाशित किया जाता हैं। उसी साक्षात सरस्वती का अद्भुत संकलन इस पुस्तक में हुआ है, जो हम सबके लिए वरदानरूप साबित होगी। प्रस्तुत अनुवाद की वाक्य रचना हिन्दी व्याकरण के मापदण्ड पर शायद पूरी न उतरे, परन्तु पूज्य दादाश्री की गुजराती वाणी का शब्दश: हिन्दी अनुवाद करने का प्रयत्न किया गया है, ताकि वाचक को ऐसा अनुभव हो कि दादाजी की ही वाणी सुनी जा रही है। फिर भी दादाश्री के आत्मज्ञान का सही आशय, ज्यों का त्यों तो, आपको गुजराती भाषा में ही अवगत होगा। जिन्हें ज्ञान की गहराई में जाना हो, ज्ञान का सही मर्म समझना हो, वे इस हेतु गुजराती भाषा सीखें, ऐसा हमारा अनुरोध है । अनुवाद संबंधी कमियों के लिए आपसे क्षमाप्रार्थी हैं। पाठकों से.... इस पुस्तक में मुद्रित पाठ्यसामग्री मूलत: गुजराती 'निजदोष दर्शन से... निर्दोष' का हिन्दी रूपांतर है। इस पुस्तक में 'आत्मा' शब्द का प्रयोग संस्कृत और गुजराती भाषा की तरह पुल्लिंग में किया गया है। जहाँ-जहाँ पर चंदूलाल नाम का प्रयोग किया गया है, वहाँ-वहाँ पाठक स्वयं का नाम समझकर पठन करें। पुस्तक में अगर कोई बात आप समझ न पाएँ तो प्रत्यक्ष सत्संग में पधारकर समाधान प्राप्त करें। दादाश्री के श्रीमुख से निकले कुछ गुजराती शब्द ज्यों के त्यों 'इटालिक्स' में रखे गये हैं, क्योंकि उन शब्दों के लिए हिन्दी में ऐसा कोई शब्द नहीं है, जो उसका पूर्ण अर्थ दे सके। हालाँकि उन शब्दों के समानार्थी शब्द () में अर्थ के रूप में दिये गये हैं। ऐसे सभी शब्द और शब्दार्थ पुस्तक के अंत में भी दिए गए हैं। 7 संपादकीय इस जगत् में खुद बँधा है किससे ? दुःख क्यों भोगने पड़ते हैं? शांति किस तरह मिल सकती है? मुक्ति किस तरह प्राप्त हो सकती है? तो इस जगत् में बंधन खुद को खुद की भूलों से ही है। खुद को जगत् में किसी चीज बाँधा नहीं है। न तो घर बाँधता है, न ही बीवी-बच्चे बाँधते हैं। न ही धंधेलक्ष्मी बाँधते हैं और न ही देह बाँध सकता है। खुद के ब्लंडर्स और मिस्टेक से बंधे हैं। अर्थात् निज स्वरूप की अज्ञानता वह सर्व भूलों का मूल है और फिर परिणामस्वरूप अनंत भूलें, सूक्ष्मतम से लेकर स्थूलतम रूप में भूलों का सर्जन होता रहता है। अज्ञानता से दृष्टि दोषित हुई है और राग-द्वेष होते हैं और नये कर्म 'बँधते रहते हैं। स्वरूप 'ज्ञान' की प्राप्ति होने से निर्दोष दृष्टि प्राप्त होती है। परिणामस्वरूप राग-द्वेष का क्षय कर, कर्म बंधन से मुक्त होकर वीतराग हो सकते हैं। भूलों का स्वरूप क्या है? खुद अपने आपको समझने में मूल भूल हुई है, फिर खुद निर्दोष है, करेक्ट ही है ऐसा मानने में आता है और सामनेवाले को दोषित मानने में आता है। निमित्त को काटने तक के गुनाह हुआ करते हैं। यहाँ प्रस्तुत संकलन में ज्ञानी पुरुष ऐसी ही समझ देते हैं कि जिससे खुद की भूलभरी दृष्टि छूटती है और निर्दोष दृष्टि प्रकट होती है। परम पूज्य दादाश्री बार-बार कहते थे कि, 'यह जगत् किस प्रकार निर्दोष है, उसके हमें हज़ारों प्रमाण हाज़िर रहकर, जागृति रहती है।' पर जो प्रमाण आपश्री के ज्ञान में अवलोकित हुए, वे कौन-से होंगे? वे यहाँ सुज्ञ पाठकों को एक के बाद एक प्राप्त होते रहते हैं। प्रस्तुत संकलन यदि बारीकी से 'स्टडी' किया जाए तो पाठक को निर्दोष दृष्टि के अनेक दृष्टिकोण संप्राप्त हों ऐसा है। जो परिणाम स्वरूप निर्दोष दृष्टि के पथ पर खुद को भी ले जाएगा। क्योंकि जिनकी संपूर्ण दृष्टि निर्दोष हो चुकी है, उनकी यह वाणी पाठक को अवश्य उस दृष्टि की समझ प्राप्त करवाएगी ही! दूसरों के दोष देखने से, दोषित दृष्टि से, संसार खड़ा है और निर्दोष 8

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