Book Title: Navtattva Sangraha
Author(s): Vijayanandsuri, Sanyamkirtivijay
Publisher: Samyagyan Pracharak Samiti

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Page 471
________________ ४३६ Jwala नवतत्त्वसंग्रहः आगले गुणस्थानोमे समुच्चयवत् जानना. अथ व्यवहार वचन योग रचना गुणस्थान १३ आदिके उदयप्रकृति ११२ है. एकेंद्री १, थावर १, सूक्ष्मत्रिक ३, आतप १, आनुपूर्वी ४ एवं १० नास्ति. १ मि | १०७ मिश्रमोह० १, सम्यक्त्वमोह० १, आहारकद्विक २, तीर्थंकर १ उतारे. मिथ्यात्व १, विकलत्रय ३, वि० सा | १०३ अनंतानुबंधि ४ एवं ४ विच्छित्ति. ३] मि | १०० मिश्रमोहनीय १ मिली. मिश्रमोहनीय १ विच्छित्ति ४ | अ | १०० सम्यक्त्वमोह० १ मिले. अप्रत्याख्यान ४. वैक्रियद्विक २. देवगति १, देव-आयु १, नरकगति १, नरक-आयु १, दुर्भग १, आनेदय १, अयश १ विच्छित्ति. ५ । ८७ ००० आगले गुणस्थानोमे समुच्चयवत् जानना. अथ औदारिककाययोगरचना गुणस्थान १३ आदिके उदयप्रकृति १०९ अस्ति. आहारकद्विक २, वैक्रियद्विक २, आनुपूर्वी ४, देवगति १, देवआयु १, नरकगति १, नरकआयु १, अपर्याप्त १ एवं १३ नास्ति. १ मि | १०६ मिश्रमोह० १, सम्यक्त्वमोह० १, तीर्थंकर १ उतारे. मिथ्यात्व १, आतप १ सूक्ष्म १, साधारण १ एवं ४ विच्छित्ति. सा | १०२ अनंतानुबंधि ४, एकेंद्री १, थावर १, विकलत्रय ३ एवं ९ विच्छित्ति. मिश्रमोहनीय १ मिले. मिश्रमोहनीय १ विच्छित्ति ४अ | ९४ सम्यक्त्व १ मिले. अप्रत्याख्यान ४, दुर्भग १, आनेदय १, अयश १ विच्छित्ति. ५/ दे | ८७ प्रत्याख्यान ४, तिर्यंचगति १, तिर्यंच-आयु १, नीच गोत्र १, उद्योत १ एवं ८ वि० ६ प्र ७९ ००० आगले गुणस्थानोमे समुच्चयवत्. अथ औदारिकमिश्र योग रचना गुणस्थान ४-पहिलो, दूजौ, चौथौ, तेरमौ, उदयप्रकृति ९८ है. आहारकद्विक २, वैक्रियद्विक २, आनुपूर्वी ४, देवगति १, देवआयु १, नरकगति १, नरकआयु १, मिश्रमोह० १, थीणद्धित्रिक ३, सुस्वर १, दुःस्वर १, प्रशस्त गति १, अप्रशस्त गति १, पराघात १, उच्छ्वास १, आतप १, उद्योत १ एवं २४ नही. १ | मि | ९६ | सम्यक्त्वमोह० १, तीर्थंकर १ उतारे. मिथ्यात्व १, सूक्ष्मत्रिक ३ विच्छित्ति २ सा | ९२ | अनंतानुबंधि ४, एकेंद्रिय १, थावर १, विकलत्रय ३, दुर्भग १, अनादेय १, ___ अयश १, नपुंसकवेद १, स्त्री १ एवं १४ व्यवच्छेद... सम्यक्त्वमोह० १ मिले. अप्रत्या० ४, प्रत्या० ४, तिर्यंच गति १, तिर्यंच-आयु १, नीच गोत्र १. सम्यक्त्वमोह० १. अंतके संहनन ३, हास्य आदि ६, पुवेद १, संज्वलनके ४, ऋषभनाराच १, नाराच १, निद्रा १, प्रचला १, आवरण ९, अंतराय ५ एवं ४४ प्रकृतिकी विच्छित्ति हुइ. १३. स ३६ - तीर्थंकर १मिले

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