Book Title: Navtattva Sangraha
Author(s): Vijayanandsuri, Sanyamkirtivijay
Publisher: Samyagyan Pracharak Samiti

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Page 519
________________ ४८४ नवतत्त्वसंग्रहः (१८१) संज्वलन लोभ संज्वलन माया संज्वलन मान संज्वलन क्रोध पुरुषवेद षेपे हास्य रति शोक | अरति | भय | जुगुप्सा स्त्रीवेद षपावे नपुंसकवेद अप्र० क्रोध | अप्र० मान | अप्र० माया | अप्र० लोभ | प्र० क्रोध | प्र० मान| प्र० माया | प्र० लोभ सम्यक्त्वमोह मिश्रमोह मिथ्यात्वमोह | अनंता० क्रोध | अनंता० मान | अनंता० माया | अनंता० लोभ | आठ कषाय क्षपाया पीछे कुछक शेष रहे आठ कषाय षेपता बीचमे १७ प्रकृति षेपे तेहनां नाम-नरकगति १, नरकानुपूर्वी १, तिर्यंच गति १, तिर्यंचानुपूर्वी १, एकेन्द्रिय आदि जाति ४, आतप १, उद्योत १, थावर १, सूक्ष्म १, साधारण १, अपर्याप्त १, निद्रानिद्रा १, प्रचलाप्रचला १, थीणद्धि १ ए सत्तरे प्रकृति आठ कषाय क्षेपता बीचमे क्षपावे. तदनंतर अवशेष आठ कषाय षेपे, पीछे नपुंसकवेद, स्त्रीवेद. (१८२) अथ सीझणद्वार लिख्यते श्रीपूज्यमलयगिरिकृत नंदीजीकी वृत्तिथी निरंतर सीझे १२ १३ १४ P पा १५ १०८ बोल संख्यानामानि | द्रव्य- | परिमाण १] ऊर्ध्वलोके उत्कृष्ट | ४ २] समुद्रे उत्कृष्ट सर्वत्र २ सामान्य जले तिर्यग्लोके अधोलोक | २० पृथक् नंदनवने पंडगवने एकैक विजयमे | वीस वीस ९/३० सर्व अकर्मभूमौ | दस दस १०/ १५ कर्मभूमिमे । १०८ «« mucounlo |११| कालद्वारे सुषमसुषम । १० । ४ कालद्वारे सुषम | १० | कालद्वारे सुषमदुःषम | १०८ कालद्वारे दुःषमसुषम १०८ कालद्वारे दुःषम २० । ४ कालद्वारे दुःषमदुःषम । गतिद्वारे देवगति आया । १०८ । ८ १८ गति शेष ३ गतिका आया | दस दस ४ १९ | गति रत्नप्रभाना आया | गति शर्कराप्रभाना आया | १० । |२१ / गति वालुकाप्रभाना आया । १० । ४ २२ | गतिप्रंकप्रभाना आया । १७) | oc c|

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