Book Title: Navtattva Sangraha
Author(s): Vijayanandsuri, Sanyamkirtivijay
Publisher: Samyagyan Pracharak Samiti

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Page 501
________________ ४६६ नवतत्त्वसंग्रहः | बंधप्रकृति । मूल ज्ञानाः (१७८) ज्ञाना० | दर्शना० | वेदनीय | मूल मोह० आयु | नाम | गोत्र | अंतराय | प्रकृति ८ ८७६१ बंधस्थान २२।२१। १७१३ ९५४ ३।२।१ २।३।४।५। ९।१३। १७/२१॥ २३।२५। २६२८। २९।३०॥ ३१११ भुयस्कार ६७८ २२ ३ । अल्पतर ७६१ ० ० । ७ ।० । । १७।१३। । ९।५।४।३। २११ | अवस्थित | ८७६१ | १ | ९, ६ | १ | १० | १ | ८ | १ | १ ५ | अवक्तव्य | ० | १ | ४ | ० | १ | १ | ३ अधिक बंध करे ते 'भुयस्कार' कहीये. अल्प अल्प बंध करे तेहने 'अल्पतर बंधक' कहीये. जितने हे तितने ही बंध करे ते 'अवस्थित बंध' कहीये. अबंधक होय कर फेर बांधे ते 'अव्यक्तव्य' कहीये. अग्रे स्वधिया विचारणीया. अथ अग्रे बन्धकारणं लिख्यते कर्मग्रन्थात्ज्ञानावर- | मति आदि ५ ज्ञान, ज्ञानी-साधु प्रमुख, ज्ञानसाधक(न)-पुस्तक आदि तेहना बुरा चिंतणा १, णीय कर्म| निह्नवणा गुरुलोपणा २, सर्वथा विणास करणा ३, अंतरंग अप्रीत ४, अंतरायभक्त, पान, वस्त्र आदिना विघ्न करणा ५, अति आशातना जाति प्रमुख करी हीलणा ६, ज्ञान-अवर्णवाद ७, आचार्य, उपाध्यायनी अविनय ८, अकाले स्वाध्याय करणी ९, षट्कायकी हिंसा १० दर्शना- | दर्शन-चक्षु आदि ४, दर्शन-साधु आदि, दर्शनसाधन-श्रोत्र, नयन आदि अथवा संमति, वरणीय | अनेकान्तजयपताका आदि प्रमाणशास्त्रनां पुस्तक आदिकने प्रत्यनीक आदि, पूर्वोक्त ज्ञानावरणीयवत् दश बोल जानने. साता गुरु जे माता, पिता, धर्माचार्य तेहनी भक्ति १, क्षमावान् २, दयावान् ३, ५ महाव्रतवान् ४, वेद दशविधसमाचारीवान् ५, बाल, वृद्ध, ग्लान आदिकना वैयावृत्त्यनो करणहार ६, भगवान्की पूजामे तत्पर ७, सराग नीय संयम ८, देशसंयम ९, अकामनिर्जरा १०, बालतप ११ गुरुनी अवज्ञानो करणहार १, रीसालु २, दया रहित ३, उत्कट कषाय ४, कृपण ५, प्रमादी ६, | हाथी, घोडा, बळदने निर्दयपणे दमन, वाहन, लांछन आदिकनो करवो ७, आप परने दुःख, शोक, बंध, तापक, क्रंदकारक ८ दर्शनमोह- उन्मार्गना उपदेशक १, सन्मार्गना नाशक २, देवद्रव्यनो हरणहार ३, वीतराग, श्रुत, संघ, धर्म, देवताना अवर्णवाद नीय | बोले ४, जगमे सर्वज्ञ है नही इम कहे ५, धर्ममें दूषण काढे ६, गुरु आदिकनो अपमानकारी ७ १. आगळ पोतानी बुद्धि प्रमाणे विचारी लेवं.

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