Book Title: Nandanvan Kalpataru 2011 12 SrNo 27
Author(s): Kirtitrai
Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti

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Page 22
________________ Jain Education International ४. स्वीयभालं न भिन्धि अलं भिक्षया, तत्कपालं न भिन्धि अलं सेचनैरालवालं न भिन्धि ॥१॥ न माकन्दतुल्यं फलं स्वादु, हेतोरिति क्षोभितः प्रांशुतालं न भिन्धि ॥२॥ लिपिर्वैधसी नाऽनुकूलेति मत्वा समुद्वेजितरस्वीयभालं न भिन्धि ॥३॥ भवन्त्वेव चेन्मद्यपेऽनल्पदोषाः कृतं हालया पीतहालं न भिन्धि || ४ || गृहाणि क्वचिच्चाऽपि शक्यानि कर्तुम् प्रकृत्योर्वरं हन्त मालं न भिन्धि ॥५॥ क्च खर्वश्शशः क्वाऽद्रितुल्यो गजेन्द्रः । निकृष्टार्थसिद्ध्यै विशालं न भिन्धि ॥६॥ कवेर्निर्मितौ दृश्यते सत्यमेतत् । पयोऽद्भ्योऽनवाप्तुं मरालं न भिन्धि ॥७॥ बहिस्साम्यमञ्चन्न सर्वं समानम् मनश्शैलबुद्ध्या प्रवालं न भिन्धि ॥८॥ न फुल्लन्ति मूले क्षुधा वारिजानाम् ततो वच्मि बन्धो ! मृणालं न भिन्धि ॥९॥ १५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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