Book Title: Nandanvan Kalpataru 2011 12 SrNo 27
Author(s): Kirtitrai
Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti
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काव्यानुवादः
निर्दोषने निर्मळ आंख तारी गूर्जरमूलम् - हरिश्चन्द्र भट्टः
निर्दोषने निर्मळ आंख तारी हती हजी यौवनथी अजाण, कीधो हजी सासरवास काले, शृंगार ते पूर्ण चितामही कर्यो !
कूणी हजी देहलता न पांगरी, कौमार आर्छ उघड्युं न ऊघड्यु, प्हेरी रहे जीवनचूंदडी जरी, सरी पडी त्यां तुज अंगथी ओ !
संसारना सागरने किनारे ऊभा रही अंजलि एक लीधी, खारं मीठं समजी शके त्यां सरी पड्यो पाय समुद्रनी महीं !
छो काळ आये, शिशिरो य आवे, ने पुष्प कूणां दवमा प्रजाळे; सुकोमळी देहकळी अरे अरे वसंतनी फूंकमही खरी पडी !
(आपणी कवितासमृद्धि (उत्तरार्ध), सं. चन्द्रकान्त टोपीवाला, गुजराती साहित्य परिषद, प्रथम आवृत्ति, २००४, पृ. ११५तः उद्धृतम्)
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