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आजकल परंपरा चल पड़ी है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने-आप को धर्म का अनुयायी कहता फिरता है, जबकि धर्म के लिए भी पात्रता चाहिए। हर कोई मंदिर चला जाए, इतने मात्र से काम नहीं चलने वाला। मंदिर जाने की भी पात्रता चाहिए। ज़रा सोचें, किसी व्यक्ति को अध्यात्म का पथ मिला हुआ है, उस व्यक्ति के साथ सांसारिक ज्ञान की चर्चा की जाए तो उसको कैसा लगेगा? उसे तो बोरियत ही होगी। ठीक वैसे ही जैसे कोई सांसारिक रंग में रंगा हो और उसके सामने आत्म-ज्ञान और अध्यात्म-ज्ञान की बात की जाए, तो उसे झपकियाँ ही आएँगी।
उपनिषदों के श्रवण के लिए अंतर-हृदय में गहरी प्यास चाहिए, गहरी मुमुक्षा चाहिए; तभी उपनिषद् का श्रवण और सत्संग सार्थक हो सकता है। दुनिया में दो तरह के रास्ते हैं, एक सफलता का और दूसरा सार्थकता का। सफलता का रास्ता सांसारिक ज्ञान का परिणाम है। सार्थकता का रास्ता आध्यात्मिक ज्ञान का परिणाम है। सांसारिक जीवन जीने वाले के लिए आशीर्वाद - 'ईश्वर तुम्हें सफल करे।' जबकि अध्यात्म के रास्ते पर चलने वाले के लिए आशीर्वाद होगा – 'ईश्वर तुम्हें सार्थकता प्रदान करे।' सफलता दुनिया से जुड़ी हुई है और सार्थकता जीवन की धन्यता से जुड़ा हुआ पहलू है।
कठोपनिषद् को भी पढ़ने और सुनने के लिए पात्रता चाहिए। कठोपनिषद्' शब्द ही बता रहा है कि जो उपनिषद् कठिन है, उसका नाम है कठोपनिषद् । जो काठ की तरह कठोर होता है, ऐसा उपनिषद् है कठोपनिषद् । यह कोई ऐसा बहता हुआ पानी नहीं है कि गए और डुबकी लगा ली। यह तो गंगासागर से गंगोत्री की तरफ चलना है। बाहर से भीतर की ओर लौटना है। कठोपनिषद्, यानी अंतर-यात्रा। बहिर्यात्रा आसान है, लेकिन भीतर चलना साधना है।
कठोपनिषद् के रास्ते पर चलने के लिए गुरु और शिष्य दोनों को तैयार होना होता है। शिष्य की अंतर-यात्रा में मदद करना ही गुरु का उद्देश्य है। इसके लिए गुरु को भी स्वयं को ब्रह्म-विद्या से जोड़ना होगा और शिष्य को भी पूरी तरह से ब्रह्म-विद्या से जुड़ना होगा। जिसके भीतर अध्यात्म की प्यास और ललक नहीं है, उसके लिए कठोपनिषद् को पढ़ने या सुनने का कोई अर्थ नहीं है। जब तक हम चातक नहीं बनेंगे, तब तक स्वाति-जल हमारे लिए परिणामदायी कैसे हो पाएगा? हालाँकि कठोपनिषद् कलेवर की दृष्टि से कोई बहुत बड़ा शास्त्र नहीं
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