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पत्र २
१० जैसे मनुष्य के शरीर की प्रमुख धातु होती है वीर्य, वैसे परमात्मा की धातु होती है उनकी आज्ञा | परमात्मा की आज्ञाओं का हम पालन करें, उसी को कहते हैं धातुमिलाप! यह धातुमिलन ही सच्चा परमात्मरंजन है। परमात्मा को प्रसन्न करने का यही सही मार्ग है - आज्ञापालन! ज्यों-ज्यों परमात्मा की आज्ञाओं का पालन होता जाता है, त्यों-त्यों परमात्मा के साथ मन-हृदय जुड़ते जाते हैं और परम आनंद की अनुभूति होने लगती है। प्रीति करने का प्रयोजन यही होता है न? आत्मानंद की अनुभूति ।
नहीं, कोई दूसरा प्रयोजन भी बताते हैं। इच्छाओं की-आशाओं की पूर्ति! 'भगवान् प्रसन्न हो जाय तो अपनी सारी इच्छायें परिपूर्ण हो जाय | अलख की लीला अपरंपार होती है। कुछ लोग भगवान से चमत्कारों की अपेक्षा रखते हुए दर्शन-पूजन-कीर्तन करते रहते हैं। ___ श्री आनंदघनजी कहते हैं : 'दोषरहित ने लीला नवि घटे...' जो सभी दोषों से मुक्त होते हैं, ऐसे परमात्मा में चमत्कार... या लीला घटित नहीं होती है। लीला... या चमत्कार... यह सब दोषित व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति होती है। परमात्म-प्रेम में ऐसी अभिव्यक्तियों का कोई महत्त्व नहीं होता है।
परमात्मा के प्रति आंतर प्रीति बंध जाती है, तब उनकी वीतरागतामयी प्रतिमा में जीवंतता प्रतीत होती है। उनका दर्शन-पूजन-स्तवन करने में अपूर्व आह्लाद अनुभूत होता है। दिन और रात... निरंतर मन प्रसन्नता का अनुभव करता रहता है | बाह्य संयोग अनुकूल हो या प्रतिकूल, प्रिय का संयोग हो या वियोग, वातावरण विषाक्त हो या अमृतमय... परमात्म-प्रेमी की चित्तप्रसन्नता अक्षुण्ण रहती है। इसी अवस्था को आनंदघनजी 'अखंड पूजा' कहते हैं!
परमात्मा के मन्दिर में मात्र दर्शन-पूजन करते समय ही मन प्रसन्नप्रफुल्लित रहे और मंदिर से बाहर निकलने के बाद जो प्रसन्नता विलीन हो जाती हो, जो प्रफुल्लितता पलायन कर जाती हो, तो वह पूजा अखंडित पूजा नहीं है, खंडित पूजा है वह । कवि ने परमात्म-पूजन का कैसा सुन्दर फल बता दिया है? तात्कालिक फल बताया है यह। पुण्यकर्म का बंधन और उससे मिलने वाले सुख... वगैरह तो परोक्ष फल हैं।
चेतन, परमात्मा के चरणों में निष्कपट भाव से आत्म-समर्पण कर दे | मन में कोई भौतिक कामना नहीं... कोई वैषयिक सुखों की प्रार्थना नहीं... मात्र परमोच्च व्यक्तित्व से प्रेम! बस, यह प्रेम ही परमात्मा के पास पहुँचने का पथ है।
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