Book Title: Madhyam Siddh Prabha Vyakaranam
Author(s): Jinendrasuri
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala

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Page 105
________________ इति तुदादयस्तितः // 5 // . रुधृग् आवरणे // 1 // रुधां स्वराच्छ्नो नलुक च / रुणद्धि रुन्द्ध: रुन्द्धे अरुणत अरौत्सीत् / विचग पृथग्भावे / युजग् यीगे / भिदृग विदारणे / छिद्ग द्वैधीकरणे / ऊछुद्ग दीप्तिदेवनयोः / उतृदग् हिंसानादरयोः / / इत्युभयपदं।। भञ्जो भङ्गे, भनक्ति / भुज पालनाभ्यवहारयोः, भोक्ता / अञ्जो व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु, आनक // 2 / / सिचोऽओरादिरिट् / आञ्जीत् शिष्ल विशेषणे, शिपिढ / पिटल पेषणे / हिसु हिंसायां // इति परस्मैपदं // खिदि दैन्ये विदि विचारणे / मिइन्धै दीप्तौ, समिधांचक्रे // इत्यात्मनेपदं / पित एते रुधादयः / / ___ तनूग विस्तारे, तनोति तनुते // 1 // तन्भ्यो वा तथासि न्णोश्च सिचो लुप न चेट, अतत अतनिष्ट / क्षणू क्षिणूग् हिंसायां, अक्षणीत् / घृणूग् दीप्तौ / षणूग दाने // 2 / / सनस्तत्रा वा। नलुकि, असात असत / / इत्युभयपदं // वनूङ याचने / मनूङ अवबोधे / इत्यात्मनेपदं / इति यितस्तनादयः / / // क्यादयः / / डुक्रीग क्रयणे // 1 // क्यादेः शिति श्ना, क्रीणाति क्रोणीते क्रीणते / प्रीग् तृप्तिकान्त्योः / मीग. हिंसायां,

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