Book Title: Madan Dhandev Charitra
Author(s): Tirthbhadravijay
Publisher: Shraman Seva Religious Trust

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Page 131
________________ 120 सिरिसोमप्पहायरियविरइआ ||४८।। ॥४९॥ ॥५०॥ गोरीओ पइ-मंदिरं, पइ-पयं दीसंति जत्थेसरा, लच्छीओ पइ-माणुसं, पइ-वणं रंभाण संभावणं। एक्कक्केण इमेण पावियमयं पासाय-पंति-प्पहापूरेणं अमरावई हसइ सा नूणं हसंतीपुरी ॥४७॥ तत्थ कुसुमावयंसुजाणस्स विभूसणम्मि जिण-भवणे। कणयमय-खंभ-कलिए मरगयमय-कुट्टिम-तलम्मि कह वि पविट्ठो मयणो जुगाइदेवस्स पेच्छिउँ पडिमं। निप्पडिमरूव-पिसुणिय-पसम-दयं थुणिउमाढत्तो जं दिट्ठी करूणा-तरंगिय-पुडा एयस्स, सोमं मुहं, आगारो पसमागरो, परियरो संतो, पसन्ना तणू। तं मन्ने जर-जम्म-मच्चु-हरणो देवाहिदेवो इमो, देवाणं अवराण दीसइ जओ नेवं सरूवं जए जायं मज्झ मणुस्स-जम्म सहलं, धन्नाण चूडामणी, संपन्नो हमिमं पि लोयण-जुयं पत्तं कयत्थत्तणं । पारं भीम-भवन्नवस्स दुलहं लद्धं मए संपयं, जं एसो भयवं भवक्खयकरो चक्खूण लक्खं गओ ॥५१।। एवं भणंतो पणमिऊण जुगाइदेवं निसन्नो तत्थेव मयणो। एत्थंतरे समागओ तत्थ धणदेवो नाम वणियपुत्तो। सो वि जयगुरुं नमंसिऊण निविट्ठो मयण-समीवे। पुट्ठो अणेण सिणेहसारवयणेहिं मयणो-भइ! कत्तो समागओ सि? किं वा कारणं जं हिययभंतर-फुरंत-दुक्खो व्व लक्खीयसि ?। तओ मयणेण सिणिद्ध-बंधु व्व को वि महप्पा एस ममं समुल्लवइ ति चिंतिऊण भणियं-भह! संपयं संकास-नयराओ समागओ म्हि, जं पुण हियय-दुक्ख-कारणं तं जइ वि लज्जणिज्नं तहा वि तुह पढम-दंसणे वि पयासियाणप्प-सिणेहत्तणेण परम-बंधुभूयस्स पुरओ सीसइ। तओ सिट्ठो जहडिओ सव्वो वि निय-वुत्तंतो। धणदेवेण वुतं-केत्तियमेत्तमेयं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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