Book Title: Launkagacchha aur Sthanakvasi Author(s): Kalyanvijay Gani Publisher: Kalyanvijayji View full book textPage 5
________________ पट्टावली - पराग "माचारांग " में केवल एक "पासत्था" शब्द श्राचारहीन साधु के लिए प्रयुक्त हुना उपलब्ध होता है, तब "सूत्रकृतांग" में एक शब्द जो प्राचारहीनता का सूचक है अधिक बढ़ गया है । वह शब्द है "कुरा'ल" । ३ उपर्युक्त दो सूत्रों के अतिरिक्त अन्य अनेक सूत्रों में "पाइर्वस्थ, कुशील, अवसन्न, संक्त, मोर ययाछन्द" इन पांच प्रकार के कुगुरुपों की परिगणना हुई; परन्तु आगे चलकर " नियय" अर्थात् 'नियत" रूप से "वसति" तथा "आहार" प्रादि का उपभोग करने वालों को छट्ठ े कुगुरु के रूप में परिगमना हुई। यह सब होने का मूल कारण गृहस्थों का संघ में प्रवेश और उनके कारण से होने वाला एक दूसरे का पक्षपात है । साधुमों के समुदाय जो पहले "गरण" नाम से व्यवहृत होते थे "गच्छ" बने और "गच्छ" में भी पहले साघुत्रों का प्राबल्य रहता था वह घोरे-वीरे गृहस्थ श्रावकों के हाथों में गया, गच्छों तथा परम्पराम्रों का इतिहास बताता है कि कई " गच्छपरम्पराएं" तो केवल गृहस्थों के प्रपत्र से ही खड़ी हुई थी, मौर उन्होंने श्रमणगरणों के संघटन का भयंकर नाश किया था। मामला यहीं समाप्त नहीं हुआा, आगमों का पठन पाठन जो पहले श्रमणों के लिए ही नियत था, श्रावकों ने उसमें भी अपना दखल शुरू कर दिया, वे कहते - प्रमुक प्रकार के शास्त्र गृहस्थ-श्रावक को क्यों नहीं पढ़ाये जायें ? मर्यादारक्षक प्राचार्य कहते - श्रावक सुनने के अधिकारी हैं, वाचना के नहीं, फिर भी कतिपय नये गच्छ वालों ने अमुक सीमा तक गृहस्थों को सूत्र पढ़ाना सुनाना प्रचलित कर दिया, परिणाम जो होना था वही हुमा, कई सुधारक नये गच्छों की सृष्टि हुई और अन्धाधुन्ध परिवर्तन होने लगे, किसी ने सूत्र- पंचांगी को ही प्रमाण मानकर परम्परागत प्राचार - विधियों को मानने से इन्कार कर दिया, किसी ने द्रव्य-स्तव भावस्तवों का बखेड़ा खड़ा करके, अमुक प्रवृत्तियों का विरोध किया, तब कइयों ने श्रागम, परम्परा दोनों को प्रमाण मानते हुए भी अपनी तरफ से नयी मान्यताएं प्रस्तुत करके मौलिकता को तिरोहित करने की चेष्टा की, इस अन्धाधुन्ध मत सर्जन के समय में कतिपय गृहस्थों को भी साधुनों के उपदेश और प्रदेशों For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education InternationalPage Navigation
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