Book Title: Laghustotra Ratnakar
Author(s): Hemendrasagar
Publisher: Buddhisagarsuri Jain Gyanmandir

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Page 196
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१५५) यो भूरिमाग्योपचयेन भूमौ, विभूतिसारे वसुभूतिगेहे । क्रीडाविलासं विमलं विधातु-मियेष धर्मप्रथनाऽभिलाषः॥१०॥ सुराऽसुरेन्द्रस्पृहणीयशील-आजन्मनः श्लाघ्यगुणाऽनुवादः। तत्त्वोपदेशेन समुद्धरन् यो-वृन्दं जनानां प्रबभौ नतानाम् ॥११॥ प्रशासको दुर्नयमानवाना, निवारकोऽधर्ममतोधतानाम् । प्रभावको यो हि बभूव धर्म-तत्वस भेत्ता भवबन्धनस्य ॥१२॥ यः पुण्डरीकाऽध्ययनं ततान, तेनैव संबोधयति म नम्रम् । तिर्यङ्महाजृम्भकलोकपालं, गुणाऽनुरक्तं गणभृद्वरेण्यः॥ १३॥ योऽष्टापदं तीर्थवरं स्वशक्त्या, तपस्विनां विस्मयमादधानः । तीर्थकरध्याननिमनचेता-गत्वा महानंदमियाय योगी ॥१४॥ अष्टापदं दीव्यगिरीन्द्रमेतुं, तपस्विनः केचन बद्धकक्षाः। तथाऽपि तदर्शनमेव तेषां, जातं न पूर्वाऽर्जितकर्मदोषात्॥१५॥ योऽष्टापदं याति धराधरेन्द्र, तस्मिन् भवे मोक्षगति स याति । दीव्योक्तिमित्थं हि निशम्य वीर-गिराऽतिहृष्टः प्रययौ गिरिं तम्।। अष्टापदं निर्जरराजशैल-मासाद्य लोकोत्तरसम्पदाव्यम् । सुराऽसुरेन्द्रप्रथितप्रभावं, स्वतेजसा निर्जितभानुमन्तम् ॥१७॥ माचमुख्यायतनं विभान्तं, दिगन्तविश्रान्तविभावितानम् । तीर्थङ्कराणां प्रणतिं विधाय, स्तुति व्यधत्त प्रगुणांस भक्त्या. ॥१८॥ युग्मम् ॥ For Private And Personal Use Only

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