Book Title: Kyamkhanrasa
Author(s): Dashrath Sharma, Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Rajasthan Puratattvanveshan Mandir
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[कवि जान कृत सूधी कही पठांननें, अपनै दलसौं बात । दौलतखां चहुवानसौ, मौ लर्यो न जात ।।५४२।। यौं कहि मिटि के उठ चल्यौ, छूट गयौ है धीर । निकसि गयौ ज्यौ बाटमै, तन उपजी भै पीर ॥५४३।। देत दमामें जेतके, • पायौ दौलतखांन । कोट सुभट संमडिष्टहीं, मारत है चहुवांन ।।५४४॥ खां सहाबसौं खेत चढ़ि, नीको कर्यो बचाव । जो को नातौ पालिहै, सो ना ताकत दाव ॥५४५।। आपहि मारत आपही, सु कर्माहिसो जात । गोत घाव जो कीजीये, मनहु करी अपघात ॥५४६।। डारी येक डुराइये, डोरि हिडारि अनेक । जे उपजे रज येकते, है तिनकी रज येकं ॥५४७।। जो रज खोवै गोतकी, लजत नांहि ज्यो मांहि । के वाहूमें रज नहीं, के उहि रजको नांहि ॥५४८।। दुख पावत दुख गोतक, है सु तिलक कुल अन । फलिका पाइ पिरातु है, नींद न आवत नैन ॥५४६॥ दौलतखांके सुभ वचन, सुनहु सबै दै चित्त । तीन बात दीवांनज, कहत रहत यो नित्त ॥५५०॥ करता जानहु येक करि, जिन मन आनहु दोइ । सब रचना आपै रची, संगी लयो न कोइ ॥५५१।। धीरज देहु न छाडिक, डरहु न बिन करतार । कहा भयो दुर्जन भये, जौ4 लाख हजार ॥५५२॥ कहा भयो कवि जान कहि, बैरी बकी कुबात । कबके गिर गिर कहत हैं, पै गिरना गिरजात ।।५५३।।
और कहत दीवांन जू, समझह बात बिबेक । न्याइ समै दुर्जन सजन, दोऊ जानहु येक ।।५५४।।