Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 9
________________ विद्वत्तापूर्ण दृष्टि से अनुप्राणित रहा है। उनके प्रति कृतज्ञता शब्दों से परे है। प्राचीन भारतीय संस्कृत के विभिन्न क्षेत्रों में कुवलयमालाकहा के अध्ययन के आधार पर प्रस्तुत ग्रन्थ का जो योगदान है वह इसके उपसंहार में प्रतिपादित है। इस अध्ययन द्वारा यह पहली बार ज्ञात होता है कि साहित्य की सदाचारपरक दष्टि का कैसे उपयोग किया गया है। आठवीं सदी तक समाज आर्य और अनार्य संस्कृति में विभक्त था। वाणिज्य-व्यापार की उन्नति के कारण भारत के वैदेशिक सम्बन्ध बढ़ रहे थे। पथ-पद्धति का विकास हो रहा था। धातूवाद जैसी रासायनिक प्रक्रिया धनोपार्जन के लिए प्रयुक्त होती थी। विभिन्न भाषामों के इतने उदाहरण प्रस्तुत करने वाली कृति एकमात्र कुवलयमाला है। ललित कलाओं और शिल्प के क्षेत्र में चित्रकला का इतना सूक्ष्म दिग्दर्शन कराना उद्योतन की कला-प्रियता का द्योतक है। धार्मिक मत-मतान्तरों की इतनी भीड में मिल-बैठ कर चिन्तन-मनन करने का प्रसंग तत्कालीन समाज में स्वतन्त्रचिन्तन और उसकी अभिव्यक्ति की मुक्तता का परिचायक है। अतः प्रस्तुत अध्ययन भारतीय संस्कृति के विभिन्न आयाम उद्घाटित करने में उपादेय होगा, ऐसी आशा है। मेरा यह सौभाग्य रहा है कि भारतीय विद्या और संस्कृत के उत्कृष्ट मनीषियों द्वारा प्रकाशन के पूर्व इस पुस्तक का अवलोकन होता रहा है। इससे यह कृति यथा-सम्भव परिष्कृत रूप में प्रकाशित हो सकी है। कुवलयमाला के इस गुरुतर कार्य को पूर्णता गुरुजनों को असीम कृपा और विद्वान् मित्रों एवं स्नेही स्वजनों के सहयोग से ही मिली है। उन सवका कृतज्ञ हूँ। ग्रन्थ में जिन प्राचीन और नवीन कृतियों का उपयोग किया गया है उन सभी के लेखकों का आभारी हूँ। पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी, अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर, वीर सेवा मन्दिर दिल्ली, भारतीय पुरातत्त्व विभाग, दिल्ली, प्राकृत शोध संस्थान, वैशाली एवं उदयपुर विश्वविद्यालय के समृद्ध पुस्तकालयों के प्रबन्धकों का भी आभारी हूँ, जिन्होंने यथासमय उनका उपयोग करने में मुझे सहयोग प्रदान किया है। पुस्तक के यथाशीघ्र प्रकाशन के लिए विहार शासन द्वारा संचालित प्राकृत शोध संस्थान, वैशाली के भूतपूर्व निदेशक स्व० डा. गुलाबचन्द्र चौधरी एवं वर्तमान निदेशक डा० नागेन्द्रप्रसाद जी का मैं हृदय से आभार मानता हूँ। मुद्रण कार्य के लिए तारा प्रिन्टिग वर्क्स वाराणसी के प्रबन्धक बन्धुओं का धन्यवाद है। हियय पउम्मि सा मे हिरि-देवी होउ संणिहिया ४, रवीन्द्र नगर, उदयपुर प्रेम सुमन जैन ३ नवम्बर, १९७५

Loading...

Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 516