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की साधना होने से यह जन्म कुछ सफल बनता है ।
शास्त्रकार ने मन को वश में करने के लिये कैसा सुन्दर तरकीब बतायी है ! लोग कई वर्षों तक फरियाद करते हैं कि 'हमारा मन स्थिर नहीं रहता, मन में बुरे व उल्टे-सीधे विचार बहुत आते हैं, मन में बहुत चिन्ता व संताप होता हैं....', परन्तु इसका कोई उपाय किया ? क्या यह असाध्य दर्द है ? उपाय तो कुछ करना नहीं और मान लेना कि 'यह स्थिति ऐसे ही रहने वाली है, सुधरने वाली नहीं है, तो फिर इसकी फरियाद क्यों ? बात गलत है । यह दर्द असाध्य नहीं, उपायसाध्य है । इसका उपाय यह है कि तीर्थंकर भगवान तथा महापुरूषों के गुणगान में चित्त लगाना, उनके सच्चरित्रों पर विस्तार से चिन्तन करना ।
उत्तम चरित्र पढ़ने-उन पर चिन्तन करने से दो लाभ :
(१) एक तो इतने समय तक मन उसमें लगा हुआ रहने से मनमें ऐसे-वैसे विचार नहीं आते, संकल्प विकल्प रूक जाते हैं, दुर्ध्यान बन्द हो जाता है; और
(२) दूसरा लाभ यह है कि महापुरूषों के जीवनचरित्रों का आलेखन करने वाले शास्त्रकार उसमें उनके सुकृत-सत्पराक्रम और क्षमा समता सहिष्णुता आदि अनेकानेक सद्गुणों का वर्णन तो करते ही हैं, साथ ही साथ ऐसे सुन्दर उपदेश व हितशिक्षायें प्रस्तुत करते हैं, उस उस पात्र की ऐसी सुन्दर भावनाओं का वर्णन करते हैं, ऐसे उचित उदगारों का आलेखन करते हैं कि यह सब पढ़ने व सोचने से अपने मन का संशोधन होता है, कुसंस्कारों का परिमार्जन होता है और सुसंस्करण हुआ करता है । इससे भी मन को अच्छा बल मिलने से फिजुल के विचार व गंदे विचारों के प्रति घृणा होने से उनमें मंदता आती है, ऐसे विचार कम आते हैं, इसीलिये समझ रखिये कि मन की अस्थिरता और मलीन विचारों का रोना रोने के बदले ऐसे उपायों का सेवन करना चाहिये ।
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उस प्रकार सत्पुरूषों के जीवनचरित्र का वांचन-मनन मन की स्थिरता - स्वस्थता के लिये एक प्रकार का ठोस व्यायाम है, एकदम सही तालीम है। ऐसे सच्चरित्र के चिन्तन-मनन से भावनाधर्म की साधना सुन्दर होती है । इसीलिये ये चरित्रकार कहते हैं कि मन से आहट्टदोहट्ट विचार करने के बदले, दूसरों की बातों में मायापच्ची करने के बदले, मिथ्याशास्त्रों की बातों के बदले जिनेन्द्रप्रभु, श्रमण और सत्पुरूषों के गुण हृदय में चिन्तन करते रहकर जन्म सफल करना चाहिये । इन गुणों का चिन्तन उनके चरित्र पर विचार करने से होगा। यह चरित्र धर्मकथा है । पादलिप्तसूरि द्वारा विरचित तरंगवती - तरंगलोला आदि धर्मकथायें हैं.
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