Book Title: Kundakunda Shabda Kosh
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Digambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti

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Page 15
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंग न [अङ्ग] आचाराङ्ग आदि आगम ग्रन्थ विशेष । (पंचा.१६०) -पुव्वगद वि [पूर्वगत] अङ्ग और पूर्वधारी। (पंचा.१६०) धम्मादीसदहणं, सम्मत्तं णाणमंगपुव्वगदं । (पंचा.१६०) अंजलि पुं स्त्री [अञ्जली] हाथसंपुट, करबद्ध । (प्रव. चा. ६२) -करण वि [करण] हाथ जोड़ने वाला, विनययुक्त, विनम्र। (प्रव. चा. ६२) अंजलिकरणं पणमं । (प्रव. चा. ६२) अंत वि [अन्त्य] अन्तिम, ऊपर, चरम। (पंचा. २८) उड्ढे लोगस्स अंतमधिगंता। (पंचा. २८) अंत पुं [अन्त] 1. सबसे छोटा, अन्तिम भाग, अन्तिम हिस्सा। (पंचा.७७) अंतो तं वियाण परमाणु। (पंचा.७७) 2. चरम सीमा, अन्तिमबिन्दु, प्रान्तभाग। (पंचा. ९४) 3. हद। (पंचा. १, ९१) आयासं अंतवदिरित्तं । (पंचा.९१) -अतीदगुण पुं न [अतीतगुण] अनन्तगुण । (पंचा.१) अंतातीदगुणाणं । (पंचा.१) -परिवुड्ढि स्त्री [परिवृद्धि] अन्त की वृद्धि, सीमावृद्धि, प्रान्तभाग की वृद्धि। (पंचा. ९४) लोगस्स य अंतपरिवुड्ढी। (पंचा.९४) । -वदिरित्त वि [व्यतिरिक्त अन्त से रहित, अनन्त (पंचा.९१) आयासं अंतवदिरित्तं । (पंचा.९१) अकत्ता वि [अकर्ता] अकर्ता, नहीं करने वाला। (स. ११२) तम्हा जीवोऽकत्ता। अकर सक [अ-कृ] नहीं करना। (स. २४६) अकरंतो (व.कृ.) अकरंतो उवओगे। For Private and Personal Use Only

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