________________
क्रियाओं के निरोध से क्या अभिप्राय है ? यह यहाँ समझ लेना आवश्यक है। क्रिया का यह अर्थ नहीं कि साधक निष्क्रिय होकर बैठ जायेगा, वह कोई भी प्रवृत्ति नहीं करेगा। साधना का अर्थ शून्यता नहीं है और न मनुष्य जीवनकाल में इस प्रकार शून्य, निर्जीव एवं निश्चेष्ट हो ही सकता है । जब तक जीवन है प्रवृत्तिचक्र चलता ही रहेगा। एक क्षण के लिये भी व्यक्ति निश्चेष्ट नहीं रह सकता ।' जब जीवन की यह स्थिति है तब प्रश्न उपस्थित होता है कि फिर साधन-पथ में क्रिया का निरोध कैसा ? जब क्रिया का निरोध नहीं तो कर्म-बन्धन से छुटकारा नहों और जब कर्म-बन्धन से छुटकारा नहीं तो फिर मुक्ति कैसे होगी ? कर्मबन्धन से मुक्ति ही तो मुक्ति है ।२ उक्त प्रश्न का समाधान है कि यहाँ क्रिया से बाहर शरीर, इन्द्रिय आदि द्वारा होने वाली स्थूल प्रवृत्ति एवं चेष्टा ही अभिप्रेत नहीं है। यहाँ क्रिया से अभिप्राय है व्यक्ति के अन्दर की मनोवैज्ञानिक स्थिति, भावात्मक वृत्ति ।
जिस प्रवृत्ति के मूल में राग, द्वेष तथा मोह की वृत्ति है, वस्तुतः वही प्रवृत्ति क्रिया है, जो कर्म बन्धन की हेतु होती है। जो प्रवृत्ति अनासक्त भाव से की जाती है, संसार को अनित्य समझ कर उदासीन भाव से की जाती है, जिसके मूल में आवश्यकता पूर्ति हेतु केवल कर्तव्य कर्म की ही निर्मल बुद्धि है, अन्य कोई भी रागद्वेषात्मिका मलिन बुद्धि नहीं है, वह प्रवृत्ति होते हुए भी अप्रवृत्ति है, क्रिया होते हुए भी अक्रिया है। इस प्रकार बाहर होनेवाली 'क्रियाओं में कर्मबन्ध की शक्ति का अभाव होता है। यदि किया की प्रतिक्रिया स्वरूप कुछ कर्मबन्ध होता भी है तो वह क्षणिक होता है। ऐसा क्षणिक कि उसे कर्म या कर्मबन्ध कहना, केवल शास्त्रीय भाषा है और कुछ नहीं। जिस कर्म में न कोई स्थिति हो और न कोई फल प्रदानरूप रस ही हो, वह कर्म ही क्या ? साधारण स्थिति में यदि बीज का वपन किया जाए तो अंकुर की उत्पत्ति होती है, किन्तु यदि बीज को भुंज दिया जाए तो उसके वपन से अंकुर की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। इसी प्रकार राग, द्वेष तथा मोह से प्रेरित होकर यदि क्रिया अर्थात् प्रवृत्ति करता है तो उससे कर्मबन्ध होता है, और उस कर्मबन्ध के फलभोग के लिये पुनर्जन्म होता है । किन्तु अनासक्त भाव से विवेक
१-न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।--भगवद्गीता ३५ २--कृत्स्नकर्मक्षयोः मोक्षः।-तत्त्वार्थ सूत्र १०३ ३-पमायं कम्म माहंसु, अप्पमायं तहाऽवरं ।-सूय० १।८।३ ४.--जहा दड्ढाणं बीयाणं न जायंति पुण अंकुरा । कम्म-बीयेसु दड्ढेसु ण जायंति भवंकुरा ।। दसासु० ५।१५
[ 23 ]
"Aho Shrutgyanam"