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प्रश्नों पर भारतीय चिन्तन में काफी चर्चा हुई है । कुछ विचारकों ने ऐसा माना है कि आत्मा स्वयं कुछ नहीं कर पाता है, वह अपने भाग्य का विधाता स्वयं नहीं है । जो कुछ भी होता है, वह ईश्वर के द्वारा होता है। ईश्वर की इच्छा है, वह जैसा चाहता है, कैसा करता है । यह विचार भारतीय चिन्तन में प्रस्फुटित तो हुआ है, परन्तु ठीक तरह गति नहीं पकड़ सका । यह कैसी बात कि प्राणी के हाथ में कोई सत्ता नहीं। वह निरीह है, दीन है, हीन है, असमर्थ है । वह स्वयं कुछ नहीं करता और अकारण ही ईश्वर अपनी निरंकुश इच्छा को उस पर थोप देता है । अतः यह चिन्तन विचार क्षेत्र में अधिक समर्थन नहीं पा सका । कर्म का सिद्धान्त ही सर्वोपरि सिद्धान्त माना गया । जैन दर्शन का तो यह प्राणतत्र ही है। जैन तत्त्व की यह मुक्त घोषणा है कि आत्माओं की अशुद्धता एवं विरूपता 'कर्म' के कारण है । और कर्म भी किसी अन्य के द्वारा लादा हुआ नहीं होता, अपना ही किया होता है । व्यक्ति ही कर्ता है, व्यक्ति ही भोक्ता है । कृत ही भोगा जाता है, अकृत नहीं । जो कर्ता है वही भोक्ता भी है । यह नहीं कि कर्ता कोई और हो, और भोक्ता कोई और ही । यह आत्माओं की स्वतन्त्रता का वह महान् उद्घोष है, जिसे कोई महान चुनौती नहीं दी जा सकती ।
क्रिया कर्म की जननी
कर्म क्या है और वह आत्मा के साथ कैसे बद्ध होता है ? उक्त प्रश्न समाधान के लिए स्पष्ट विचारणा माँगता है । अन्य दर्शनों में कर्म के सम्बन्ध में विभिन्न धारणाएँ हैं, यहाँ हम उस लम्बे विस्तार में नहीं जाना चाहते। प्रस्तुत प्रसंग जैन दर्शन का है, अतः हम यहाँ संक्षेप में जैन दर्शन से सम्बन्धित कर्मवाद की ही विवेचना प्रस्तुत करते हैं ।
जैन दर्शन का मन्तव्य है कि समग्र लोक में कार्मण वर्गणा के पुद्गल व्याप्त हैं । ये पुद्गल स्वयं कर्म नहीं हैं, किन्तु उनमें कर्म होने की योग्यता है । वे कर्मरूप पर्याय विशेष में प्रसंगानुसार परिणत हो जाते हैं । प्राणी के अन्तर में जब भी राग-द्वेषात्मक भाव होते हैं, " तभी तत्क्षण वे आत्मक्षेत्रावगाही कार्मण वर्गणा के पुद्गल कर्मरूप में परिणत हो जाते हैं, और कार्मण नाम के सूक्ष्म शरीर के माध्यम से आत्मा के साथ बद्ध हो जाते हैं । आत्मा
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- ईश्वरप्रेरितो गच्छेत स्वर्ग वा श्वभूमेव वा--- २- कम्मुणा उवाही जायहइ - आया० १/३/१
३- अत्तकडे दुक्खे णो परकडे ! - भग० १७/५
४- अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य ।-उत्त० २० ।
५- रागो य दोसो वि य कम्मबीयं— उत्त० ३२/७
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• सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाढ स्थिता
तत्त्वार्थसूत्र ८२५
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"Aho Shrutgyanam"